
—कर्मवीर नागर, सामाजिक चिंतक
प्रदेश सरकार की भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस नीति का सबसे अधिक परीक्षण गौतम बुद्ध नगर के औद्योगिक प्राधिकरणों—नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना प्राधिकरण—में होना चाहिए था। लेकिन वास्तविकता इससे उलट दिखाई देती है। वर्षों से इन प्राधिकरणों में व्याप्त अनियमितताओं, मनमानी और भ्रष्टाचार ने किसानों की उम्मीदों को बुरी तरह तोड़ा है। सरकारें बदलीं, अधिकारी बदले, नीतियाँ बदलीं—लेकिन किसानों की समस्याएँ जस की तस खड़ी हैं।
किसानों का संघर्ष और प्राधिकरणों की उदासीनता
दशकों से आबादी भूखंड आबंटन का इंतजार कर रहे ग्रेटर नोएडा के किसान नक्शा–11 पर औने–पौने दामों में अपनी जमीन बेचने को विवश हैं।
वहीं बैक-लीज़ जैसी बुनियादी प्रक्रिया के लिए उन्हें महीनों तक प्राधिकरणों के चक्कर काटने पड़ते हैं।
किसानों के अनुसार—भ्रष्टाचार का आलम यह है कि बिना ‘सुविधा शुल्क’ के कोई काम होना लगभग असंभव सा लगता है। इसी वजह से इन प्राधिकरणों के इर्द-गिर्द दलाली का जाल दिन-प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा है।
धरने, प्रदर्शन और समझौते… सब बेअसर
किसानों के लंबे संघर्ष, धरनों और कई दौरों की बैठकों के बावजूद भी स्थिति में सुधार नहीं हो पाया।
यदि कभी-कभार किसी दबाव में समझौते हो भी जाते हैं, तो उन पर अमल नहीं किया जाता।
कई किसान संगठनों को श्रेय की राजनीति और राजनीतिक विद्वेष का भी शिकार होना पड़ा है—स्थिति इतनी गंभीर है कि किसान अब असहाय और ठगा हुआ महसूस करते हैं।
प्राधिकरणों में अनियमितताओं की निरंतरता
भ्रष्टाचार कोई नई कहानी नहीं है—हर सरकार के दौर में इन प्राधिकरणों पर गंभीर आरोप लगे।
भाजपा सरकार से अत्यधिक उम्मीदें थीं, लेकिन 8 वर्ष बीत जाने के बाद भी किसानों की स्थिति में कोई ठोस बदलाव नहीं हुआ।
हाल ही में एक ऐसा मामला सामने आया जहाँ उत्तर प्रदेश शासन द्वारा दर्जनों अधिकारियों पर मुकदमा दर्ज करने के आदेश दिए गए थे, लेकिन प्राधिकरण ने उन आदेशों को ही डंप कर दिया।
इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि शासन के सीधे आदेश तक ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते हैं!
अतिक्रमण, अवैध कब्जे और प्राधिकरण की लापरवाही
ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण एक ओर 6%, 8%, 10% आबादी भूखंडों के लिए भूमि उपलब्ध न होने की दुहाई देता है,
वहीं दूसरी ओर अर्जित भूमि पर अतिक्रमण और अवैध कब्जे लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
इन पर नकेल कसने की कोई स्पष्ट इच्छाशक्ति प्राधिकरण की तरफ दिखाई नहीं देती।
बाद में यही कब्जे शासन–प्रशासन के लिए सिरदर्द बन जाते हैं।
राजनीतिक दल भी मौन—किसानों की पीड़ा अब असहनीय
स्थानीय राजनीतिक दलों में भी इन मूल मुद्दों पर संवेदनशीलता का अभाव दिखता है।
धरने–प्रदर्शन और वार्ताओं का नतीजा शून्य होने के बाद आज नोएडा–ग्रेटर नोएडा का किसान खुद को सबसे कमजोर कड़ी मानने लगा है।
स्थिति यह है कि किसान अब समझ ही नहीं पा रहा कि वह करे तो क्या करे।
किसानों की समस्याओं का समाधान—केवल दो संभावित रास्ते
- राज्य सरकार को तय समय सीमा के सख्त आदेश जारी करने होंगे,
जिसमें अधिकारियों की जवाबदेही और दंडात्मक कार्रवाई स्पष्ट रूप से निर्धारित हो। - यदि ऐसा नहीं होता, तो किसानों को अपने अंदर की हनुमान–शक्ति जगाकर
अपने हक और सम्मान के लिए निर्णायक संघर्ष के लिए तैयार होना होगा—
ठीक उसी तरह जैसे महाभारत में वर्षों का संघर्ष 18 दिनों के युद्ध के बाद ही हल हुआ था।

लेखक का परिचय
कर्मवीर नागर
प्रमुख (प्रधान) | सामाजिक चिंतक | जन मुद्दों के विश्लेषक
कर्मवीर नागर पिछले कई वर्षों से गौतम बुद्ध नगर की सामाजिक, प्रशासनिक और किसान–समस्याओं पर लगातार शोध–आधारित लिखते रहे हैं।
उनके लेख किसानों, युवाओं और स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्थाओं में सुधार पर केंद्रित होते हैं।
कानूनी अस्वीकरण (Legal Disclaimer)
- यह लेख लेखक के व्यक्तिगत विचारों और अनुभवों पर आधारित है।
- लेख में वर्णित आरोप, घटनाएँ और प्रशासनिक व्यवहार लेखक के विश्लेषण का हिस्सा हैं—किसी भी संस्था या व्यक्ति पर प्रत्यक्ष आरोप लगाने का उद्देश्य नहीं है।
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