गौतमबुद्धनगर का किसान और बेरोजगार किस पर करें भरोसा: राजनीति, प्राधिकरण और जनता का अधूरा सफर

करमवीर नागर, प्रमुख | सामाजिक चिंतक एवं विचारक

गौतम बुद्ध नगर देश की सर्वाधिक चर्चित विकास पट्टी के रूप में उभरा है। नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेस-वे के साथ यह क्षेत्र औद्योगिक, तकनीकी और अवसंरचना की दृष्टि से अग्रणी माना जाता है। तथापि, इस चमकती विकास गाथा के पीछे एक असहज और कठोर वास्तविकता छिपी है। यहां के किसान एवं बेरोजगार युवा आज भी मूलभूत अधिकारों, न्यायपूर्ण मुआवजा, स्थानीय रोजगार और पंचायत लोकतंत्र की बहाली के लिए संघर्षरत हैं।

इतिहास बदला, व्यवस्था की सोच नहीं

मुगल शासन से लेकर अंग्रेजी हुकूमत तक, सत्ता संरचनाओं की प्राथमिकता राजस्व और नियंत्रण रही। स्वतंत्रता के पश्चात लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था आने के बावजूद गौतम बुद्ध नगर जैसी भूमि-आधारित अर्थव्यवस्थाओं में किसान के अधिकारों के संदर्भ में मानसिकता में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं दिखा। भूमि अधिग्रहण नीति में सुधारों के बावजूद प्राधिकरणों का व्यवहार अक्सर साम्राज्यवादी दृष्टिकोण की पुनरावृत्ति जैसा प्रतीत होता है।

भूमि को विकास के नाम पर अधिग्रहीत किया गया, किंतु मुआवजा, आबादी प्लॉट, पुनर्वास और सामाजिक सुरक्षा जैसे विषय न्यायोचित रूप से परिपूर्ण नहीं हुए। 64.7% मुआवजा वृद्धि और नई भूमि अधिग्रहण नीति की मांग वर्षों से लंबित है। शांतिपूर्ण किसान आंदोलनों पर दमनात्मक कार्रवाई और कारावास की घटनाएं लोकतांत्रिक मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं।

राजनीतिक परिदृश्य और विश्वास का संकट

पिछले ढाई दशकों में अनेक दलों ने प्रदेश पर शासन किया। प्रत्येक दल ने चुनावी मंच पर किसान, युवा और मजदूर के उत्थान का वादा किया, किंतु धरातल पर अंतर नगण्य रहा। यहां के किसान और युवा यह भलीभांति अनुभव कर चुके हैं कि सत्ता परिवर्तन से नीतिगत संवेदनशीलता स्वतः नहीं बदलती।

लोकतांत्रिक भागीदारी की अपेक्षा और यथार्थ के बीच सबसे त्रासद उदाहरण पंचायत चुनावों का पुनर्गठन है। 288 गांवों में स्थानीय स्वशासन की मांग लंबे समय से प्रलंबित है। कोई भी दल यह घोषणा करने की स्थिति में नहीं आया कि वह इस जनतांत्रिक आवश्यकता को प्राथमिकता देगा।

रोजगार: वादों और वास्तविकता के बीच खाई

औद्योगिक नगर होने के बावजूद स्थानीय युवाओं को रोजगार में प्राथमिकता नहीं मिल सकी। उद्योगों में रोजगार व्यवस्था में पारदर्शिता और स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षण व कौशल संवर्धन की नीतियों की अनुपस्थिति ने विसंगति को अधिक गहरा किया है। विकास मॉडल का लाभ स्थानीय मानव संसाधन तक अपेक्षित रूप से नहीं पहुंच पाया।

गांवों में विकास के नाम पर उपेक्षा

दूसरी ओर महानगरीय विस्तार के बीच गांवों की उपस्थिति अविकसित द्वीपों जैसी प्रतीत होती है। आधुनिक नगरीय अवसंरचना के समानांतर गांवों में सड़कों, जल निकासी, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा के मूलभूत स्तर पर भी अव्यवस्था बरकरार है। कई गांव स्लम के रूप में परिवर्तित होने की कगार पर हैं, जो समावेशी विकास की अवधारणा पर सीधा प्रश्न है।

आने वाला समय: किसका भरोसा जीतेगा?

अब प्रश्न यह नहीं कि किसान और युवा किस दल पर भरोसा करें, प्रश्न यह है कि कौन सा दल ठोस नीति, संवेदनशील कार्ययोजना और सामाजिक उत्तरदायित्व प्रदर्शित करेगा। जनता का विश्वास अब वादों पर नहीं, बल्कि कार्यान्वयन पर निर्भर करेगा। पंचायत पुनर्गठन, स्थानीय रोजगार को प्राथमिकता, पारदर्शी प्राधिकरण प्रशासन, और न्यायोचित भूमि समाधान वास्तविक कसौटियां होंगी।

गौतम बुद्ध नगर आज उस मोड़ पर खड़ा है जहां युवाओं की ऊर्जा और बुजुर्गों के अनुभव का संगम एक नई राजनीतिक चेतना निर्माण कर सकता है। प्रदेश और देश के लिए यह एक उदाहरण बन सकता है कि लोकतंत्र तभी परिपूर्ण होता है, जब उसकी जड़ें गांवों, खेतों, श्रमशील हाथों और सपने देखते युवाओं की आकांक्षाओं से सींची जाएं।

अगले राजनीतिक समीकरणों में यह जनपद केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व नहीं, बल्कि नीतिगत सम्मान और संवेदनशीलता की मांग करता है। भविष्य इसी सवाल पर टिका है: कौन इस भरोसे को समझेगा, और कौन इसे निभाने में सफल होगा।

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