
एडवोकेट किशनलाल पाराशर
भारत ने 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त कर जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया था, उसका मूल सिद्धांत यही था कि शासन की शक्ति जनता के हाथों में रहे तथा नीति-निर्माण में योग्य, अनुभवी, और समाज-सेवी व्यक्तित्वों की भागीदारी सुनिश्चित हो। संविधान सभा ने द्विसदनीय व्यवस्था का निर्माण इसी दृष्टि से किया था कि निचले सदन में जनता के सीधे निर्वाचित प्रतिनिधि जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करें, तथा उच्च सदन में वे विद्वान और विशेषज्ञ भेजे जाएँ जो शासन को दिशा देने, नीतियों का परीक्षण करने, और राष्ट्रहित में दूरदर्शी परामर्श प्रदान करने की क्षमता रखते हों।
उच्च सदन के लिए शिक्षा, साहित्य, विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाज सेवा, कला तथा सार्वजनिक जीवन में विशिष्ट योगदान को प्राथमिकता देने का प्रावधान किया गया था। अपेक्षा यह थी कि संसद का यह सदन राष्ट्र निर्माण में ज्ञान, अनुभव, और नैतिक नेतृत्व का स्तंभ बनेगा।
किन्तु लोकतांत्रिक व्यवस्था के इस आदर्श स्वरूप को समय के साथ गंभीर क्षति पहुँची। अनेक राजनैतिक दलों ने उच्च सदनों को योग्य व्यक्तियों के मंच के स्थान पर पारिवारिक वंशवाद, आर्थिक प्रभाव, और राजनीतिक सौदेबाज़ी का साधन बना दिया। परिणामस्वरूप, अनेक अवसरों पर ऐसे व्यक्तियों को सदस्यता प्रदान की गई जो किसी विषय का गहन ज्ञान नहीं रखते, जिनका शिक्षा, विज्ञान, उद्योग, सामाजिक विकास, या अकादमिक क्षेत्र से कोई सार्थक योगदान नहीं रहा, और जिनकी प्राथमिकता केवल राजनीतिक संरक्षण और व्यक्तिगत लाभ तक सीमित रही।
आज स्थिति यह है कि उच्च सदनों में ऐसे चेहरे दिखते हैं जिन्होंने कभी समाज, युवाओं, किसानों, शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार, स्वास्थ्य या राष्ट्रीय प्रगति से जुड़े मुद्दों पर सारगर्भित कार्य नहीं किया। कई स्थानों पर भाई-भतीजावाद, रिश्तेदारी, और धनबल ने योग्यता व नैतिकता को पीछे धकेल दिया। इसी कारण संसद का वह स्तर, जो राष्ट्र हित में विचारशील मार्गदर्शन का केंद्र होना चाहिए था, अनेक अवसरों पर औपचारिकता भर प्रतीत होता है।
समय की आवश्यकता है कि सभी राजनीतिक दल लोकतंत्र की मूल भावना को पुनर्स्थापित करें। ऐसे योग्य, ईमानदार, और अनुभवी व्यक्तियों को अवसर दिया जाए जो वर्षों से समाज के बीच कार्यरत हों, राष्ट्र के लिए सोच रखते हों, और जिनका उद्देश्य जनसेवा, नीति-निर्माण तथा लोकतंत्र को सुदृढ़ करना हो। केवल किसी परिवार का सदस्य होना, या वित्तीय प्रभाव रखना, योग्यता और मर्यादा का मापदंड नहीं हो सकता।
लोकतंत्र तभी सशक्त होगा जब अवसर क्षमता, कर्म और प्रतिबद्धता के आधार पर दिए जाएँ, न कि पारिवारिक पहचान या राजनीतिक सुविधा पर। संसद तभी अपनी गरिमा और उद्देश्य को पुनर्प्राप्त कर सकेगी जब उच्च सदनों में खरे अर्थों में विद्वान, निष्ठावान और राष्ट्रभक्त व्यक्तित्वों का वर्चस्व स्थापित होगा।
यह लेख इस उद्देश्य से प्रस्तुत है कि देश की राजनीतिक प्रणाली में ऐसी सुधारवादी सोच उत्पन्न हो जो प्रतिभाशाली, ईमानदार, और समर्पित नागरिकों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अग्रणी स्थान दिलाए, चाहे वे आर्थिक रूप से कमजोर ही क्यों न हों। यही भारतीय लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति और भविष्य का मार्ग है।
लेखक परिचय
लेखक: एडवोकेट किशनलाल पाराशर, स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक चिंतक एवं विचारक हैं।
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