
✍️ चौधरी शौकत अली चेची
भूमिका : रिश्ते कब सौदा बन गए?
भारतीय संस्कृति में विवाह हमेशा से एक पवित्र संस्कार माना गया है। यह सिर्फ दो व्यक्तियों का मिलन नहीं बल्कि दो परिवारों और संस्कृतियों का संगम होता है। विवाह का रिश्ता हमेशा से सामाजिक और वैचारिक समझदारी पर आधारित रहा है। परंतु आधुनिक समय में यह पवित्र रिश्ता धीरे-धीरे एक सौदे में बदलता जा रहा है।
आज की हकीकत यह है कि पहले लड़का बिकता है, फिर दूल्हा बनाकर शादी होती है। 95% मामलों में लड़का और लड़की दोनों के परिवार इस परंपरा का हिस्सा बन जाते हैं। पहले समय था जब वधू पक्ष सम्मानपूर्वक वर पक्ष से रिश्ता मांगता था, लेकिन अब स्थिति उलट है – वर पक्ष मूंछ ऊंची करके खड़ा होता है और लड़की वालों को दहेज के नाम पर आर्थिक बोझ तले दबा देता है।
परिणाम यह है कि रिश्ते वैचारिक और सांस्कृतिक मेलजोल से नहीं बल्कि पैसों और वस्तुओं की नीलामी पर तय होने लगे हैं। यह प्रवृत्ति न केवल रिश्तों की पवित्रता को नष्ट कर रही है बल्कि समाज में अपराध, घरेलू कलह और यहां तक कि हत्याओं तक को जन्म दे रही है।
दहेज – एक सामाजिक अभिशाप
- दहेज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
दहेज भारतीय समाज में नया नहीं है। पहले इसे कन्या पक्ष की ओर से “दान” या “भेंट” के रूप में देखा जाता था। इसे बेटी की खुशी और सुविधा के लिए दिया जाता था। परंतु धीरे-धीरे यह प्रथा लालच और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गई।
आज दहेज एक लेन-देन की मजबूरी बन चुका है। “भात”, “छूचक”, “तोहफा”, “रीत-रिवाज” के नाम पर लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं। वर पक्ष इसे अपनी प्रतिष्ठा समझकर स्वीकार करता है, जबकि वधू पक्ष इसे अपनी सामाजिक मजबूरी मानकर चुपचाप झेलता है।
- आंकड़े और सच्चाई
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े बताते हैं कि हर वर्ष लगभग 6,000 से 7,000 महिलाओं की मौत दहेज उत्पीड़न या दहेज हत्या के मामलों में होती है।
औसतन हर एक घंटे में एक महिला दहेज से जुड़ी हिंसा का शिकार होती है।
यह केवल दर्ज मामलों की संख्या है; वास्तविकता इससे कहीं अधिक भयावह है क्योंकि ग्रामीण समाज में अधिकांश घटनाएं “परिवार की इज्जत” के नाम पर दबा दी जाती हैं।
- सामाजिक असर
लड़कियों के परिवार आर्थिक कर्ज में डूब जाते हैं।
रिश्तों में स्थायित्व समाप्त हो जाता है क्योंकि आधार वैचारिक न होकर वित्तीय होता है।
समाज में अपराध और घरेलू हिंसा की जड़ें गहरी होती जाती हैं।
शिक्षा और संस्कार – असली दहेज
कहावत है – “सबसे बड़ा दहेज लड़की की शिक्षा है।”
अगर माता-पिता अपने बच्चों (चाहे बेटा हो या बेटी) को शिक्षित, संस्कारी और हुनरमंद बना दें तो वही उनकी सबसे बड़ी संपत्ति और दहेज है।
शिक्षित लड़की अपने परिवार और समाज को तरक्की की राह पर ले जाती है।
संस्कारी लड़का रिश्ता पैसों के बजाय भावनाओं पर निभाता है।
यदि दोनों पक्ष मिलकर यह प्रण लें कि हम केवल शिक्षा, रोजगार और संस्कार को महत्व देंगे, तो दहेज की बुराई स्वतः समाप्त हो सकती है।
कानून और दहेज विरोधी प्रावधान
- दहेज निषेध अधिनियम, 1961
यह कानून दहेज लेने और देने – दोनों को अपराध मानता है। दोषी पाए जाने पर 5 वर्ष तक की सजा और 15,000 रुपए या दहेज की राशि जितनी भी हो उसका जुर्माना लगाया जा सकता है।
- भारतीय दंड संहिता की धारा 304B
यदि विवाह के सात वर्ष के भीतर महिला की “असामान्य” मृत्यु होती है और यह दहेज उत्पीड़न से जुड़ी हो, तो इसे दहेज हत्या माना जाता है।
इसमें आरोपी को 7 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है।
- धारा 498A
पति या ससुराल पक्ष द्वारा महिला पर उत्पीड़न होने पर यह धारा लागू होती है।
समस्या: इन कानूनों के बावजूद दहेज प्रथा समाप्त नहीं हो पाई है। कई बार कानून का दुरुपयोग भी होता है, जिससे असली पीड़ितों की आवाज दब जाती है।
एनसीआर और गौतमबुद्ध नगर की तस्वीर
गौतमबुद्ध नगर जिले में दहेज और घरेलू कलह के कई दर्दनाक मामले सामने आए हैं।
मुर्शदपुर, जमालपुर और सिरसा गांव के मामले समाज को हिला चुके हैं।
हाल ही में निक्की भाटी हत्याकांड ने पूरे जिले को सन्न कर दिया। चाहे अंतिम निष्कर्ष कुछ भी हो, लेकिन सच्चाई यही है कि एक बहन, बेटी, पत्नी और मां को समाज ने खो दिया।
इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि:
- दहेज की कुरीति सिर्फ गरीबों की समस्या नहीं है, बल्कि संपन्न परिवार भी इससे अछूते नहीं हैं।
- शादियों में फिजूलखर्ची और दिखावे की होड़ भी इस समस्या को बढ़ावा दे रही है।
- संस्कार और मूल्य शिक्षा की कमी ही इन अपराधों का मूल कारण है।
समाज और धर्मगुरुओं की जिम्मेदारी
अगर समाज एकजुट होकर यह ठान ले कि दहेज लेने-देने वाले परिवार का बहिष्कार किया जाएगा, तो यह बुराई स्वतः खत्म हो जाएगी।
धर्मगुरु, बुद्धिजीवी और सामाजिक संगठन यदि मंच से खुलकर इसका विरोध करें और जनता को शपथ दिलाएं कि “हम दहेज नहीं लेंगे और नहीं देंगे”, तो बड़ा बदलाव संभव है।
मीडिया और सोशल मीडिया भी इस मुद्दे पर जनजागरूकता फैलाने का प्रभावी माध्यम है।
समाधान – क्या किया जा सकता है?
- शिक्षा पर जोर:
हर माता-पिता को यह प्रण लेना होगा कि वे अपनी बेटी को पढ़ाएंगे और बेटे को संस्कारी बनाएंगे। - सामाजिक शपथ:
समाज में हर शादी में दहेज न लेने और न देने की सार्वजनिक शपथ दिलाई जाए। - फिजूलखर्ची पर रोक:
भव्य बारात, महंगे गहनों और दावतों की बजाय साधारण विवाह को प्रोत्साहित किया जाए। - कानूनी सख्ती:
दहेज लेने-देने वालों पर कानून को और सख्ती से लागू किया जाए। - बेटी-बचाओ अभियान की तरह आंदोलन:
दहेज उन्मूलन को राष्ट्रव्यापी जनांदोलन बनाना होगा।
निष्कर्ष
विवाह सौदेबाजी नहीं बल्कि संस्कार और संस्कृति का प्रतीक है। यदि दहेज प्रथा को समाप्त करना है तो पूरे समाज को एकजुट होकर आगे आना होगा।
आज जरूरत है कि हम यह ठान लें:
दहेज लेना और देना – दोनों अभिशाप और अपराध हैं।
सबसे बड़ा दहेज है शिक्षा, संस्कार और हुनर।
रिश्ता पैसों से नहीं बल्कि आपसी समझ और प्रेम से निभाया जाना चाहिए।
यदि यह संकल्प हम सब मिलकर ले लें, तो निक्की भाटी जैसी घटनाएं दोहराई नहीं जाएंगी और रिश्ते टिकाऊ बनेंगे।
कानूनी डिस्क्लेमर
यह लेख सामाजिक सुधार के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें उल्लिखित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं और किसी विशेष व्यक्ति या संस्था को लक्षित नहीं करते। इसमें वर्णित उदाहरण केवल जागरूकता और विमर्श हेतु दिए गए हैं। पाठकों से अपील है कि वे किसी भी घटना या मामले के संबंध में अंतिम निर्णय के लिए संबंधित न्यायालय और सक्षम प्राधिकारियों के आदेशों को ही मान्य समझें। यह लेख किसी भी प्रकार से न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने अथवा किसी व्यक्ति विशेष को दोषी ठहराने हेतु नहीं है।
लेखक:- ✍️ चौधरी शौकत अली चेची, सामाजिक चिंतक, विचारक और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष – किसान एकता (संघ) प्रदेश सचिव (पिछड़ा वर्ग) – समाजवादी पार्टी, उत्तर प्रदेश है।