
🗞️ संपादकीय
🕊️ धर्म की दीवार पर सियासत की फसल
✍️ मौहम्मद इल्यास- ‘दनकौरी’
(प्रधान संपादक – Vision Live News)
उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर उस पुराने मोड़ पर लौटती दिख रही है —
जहाँ धर्म और जाति के नाम पर समाज को बांटने का खेल शुरू होता है और चुनावी मौसम आते ही “मेजोरिटी बनाम माइनॉरिटी” की खाई को चौड़ा किया जाता है।
वर्ष 2027 का विधानसभा चुनाव अभी दूर है, पर सियासी हलचलों ने यह साफ कर दिया है कि सत्ता की फसल फिर उसी धार्मिक ज़मीन पर बोई जा रही है, जिस पर सदियों से नफरत की घास पनपाई जाती रही है।
🔹 धर्म बनाम वोट की राजनीति
प्रदेश में हाल के दिनों में जो घटनाएं घट रही हैं — चाहे बरेली, संभल या फतेहपुर की हों — वे केवल कानून-व्यवस्था की विफलता नहीं, बल्कि सुनियोजित राजनीतिक प्रयोगशाला के संकेत हैं।
“आई लव मोहम्मद” या “जय श्रीराम” जैसे नारों को भावनाओं के प्रतीक से ज़्यादा राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
यह सिलसिला नया नहीं है, बस मंच और माध्यम बदल गए हैं।
पहले यह नारे गलियों में गूंजते थे, अब सोशल मीडिया की दीवारों पर लिखे जाते हैं।
🔹 विपक्ष की नीति: तुष्टिकरण बनाम ठहराव
विपक्षी दलों — विशेषकर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी — की राजनीति शुरू से ही तुष्टिकरण की धुरी पर घूमती रही है।
सेकुलरिज़्म का लबादा ओढ़कर उन्होंने अल्पसंख्यक समाज को शिक्षा, प्रगति और आत्मनिर्भरता की राह से अधिक दूर रखा है।
वे चाहते रहे कि मुसलमान मस्जिद की दीवारों और टोपी की पहचान तक सीमित रहे।
यही कारण है कि जब भी किसी हिंसा या विवाद की चिंगारी सुलगती है, तो राख उसी वर्ग के हिस्से आती है, जबकि सियासी दल सत्ता की ऊँचाइयों पर अपनी रोटियाँ सेंकते हैं।
🔹 समाजवादी शासन और दंगों की यादें
उत्तर प्रदेश के इतिहास में जब भी समाजवादी सरकार सत्ता में रही —
दंगे और सांप्रदायिक तनाव उसकी परछाईं की तरह मौजूद रहे।
दादरी का अखलाक हत्याकांड,
सीओ तंजीम अहमद की हत्या,
और सीओ जिया-उल-हक़ प्रकरण —
ये सब उसी दौर के प्रतीक हैं, जब प्रशासनिक कठोरता की जगह राजनीतिक समीकरणों को प्राथमिकता दी गई।
सत्ता का डर अपराधियों से ज़्यादा वोट बैंक की नाराज़गी से था।
🔹 योगी सरकार की कार्यशैली: कठोर नियंत्रण
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार का रवैया इस दृष्टि से भिन्न रहा है।
उनके भाषण भले ही उग्र रहे हों, परन्तु प्रशासनिक कार्रवाई में दृढ़ता दिखाई दी है।
दंगे भड़काने वालों के प्रति सख्ती और त्वरित नियंत्रण की नीति ने बड़े पैमाने पर हिंसा को रोकने में भूमिका निभाई है।
यह इस सरकार की एक स्पष्ट प्रशासनिक उपलब्धि कही जा सकती है।
यदि यह नियंत्रण न होता, तो विपक्ष की राजनीति धर्म के नाम पर उत्तर प्रदेश को एक बार फिर जलाने में देर न करती।
🔹 जब धर्म बहस का विषय बन जाए
आज धर्म, जो कभी आस्था और नैतिकता का आधार था, अब सियासी बाज़ार का सबसे बिकाऊ उत्पाद बन चुका है।
“आई लव मोहम्मद” और “जय श्रीराम” — ये दोनों ही नारे भले ही धार्मिक प्रतीक हों, लेकिन अब इन्हें राजनीतिक युद्ध के झंडे की तरह लहराया जा रहा है।
मकसद स्पष्ट है — समाज को खेमों में बाँटना, और उसके बीच से वोटों की पगडंडी बनाना।
पर सवाल यह है कि जब यह खेल खत्म होगा, तो क्या कुछ बचेगा?
वोट तो पड़ जाएंगे, लेकिन विश्वास की बुनियाद हर चुनाव के बाद और कमजोर होती जाएगी।
🔹 असली मुद्दे हाशिए पर
हर बार की तरह इस बार भी धर्म और पहचान की बहस में शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोज़गारी, किसानों की समस्याएं, और युवाओं के अवसर जैसे वास्तविक मुद्दे गायब हैं।
यह देश और प्रदेश के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि
हर चुनाव के बाद सत्ता तो बदलती है, पर लोगों की ज़िंदगी नहीं।
राजनीतिक दल जानबूझकर जनता को इन मुद्दों से भटकाकर भावनाओं में उलझा देते हैं।
क्योंकि धर्म की बहस में तर्क नहीं, आक्रोश बिकता है — और आक्रोश हर बार वोट में बदल जाता है।
🔹 जनता के विवेक की परीक्षा
अब यह जनता पर है कि वह इस विभाजनकारी सियासत को कितना और सहन करेगी।
धर्म आस्था का विषय है, सत्ता का नहीं।
जो दल इसे चुनावी औजार बनाते हैं, वे समाज की जड़ों में जहर घोलते हैं।
2027 के चुनाव नज़दीक हैं, पर इससे पहले यह तय होना ज़रूरी है कि
क्या उत्तर प्रदेश “विकास की प्रयोगशाला” बनेगा,
या फिर “धर्म की रणभूमि” बनकर रह जाएगा।
🔹 अंतिम संदेश
धर्म अगर राजनीति का हिस्सा बनेगा, तो समाज हमेशा विभाजित रहेगा।
अब समय है कि मतदाता अपने विवेक से तय करे —
कि उसे “धर्म के नाम पर लड़ने वाले नेता” चाहिए
या “जनता के लिए काम करने वाली सरकार”।
🖋️ मौहम्मद इल्यास ‘दनकौरी’
प्रधान संपादक – Vision Live News
(लेखक सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों पर नियमित लेखन करते हैं)