पुलिस के तुगलकी फरमान से विपक्ष को मानो एक हाथियार ही मिल गया
चौधरी शौकत अली चेची
यूपी में कावड यात्रा को लेकर पुलिस ने एक ऐसा फरमान जारी किया है कि खुद योगी सरकार तक घिरती हुई नजर आ रही है। विपक्ष को मानो एक हाथियार मिल गया है। मुजफ्फरनगर पुलिस प्रशासन के एक आदेश ने आश्चर्य चकित कर दिया। इस आदेश की कई तस्वीरें वायरल हो रही हैं। उधर देवभूमि में भी सरकार ने आदेश जारी कर दिया कि आम के ठेले और दुकानों पर दुकानदारो को अपना नाम लिखना ही पडेगा। पुलिस कुछ भी कहे आप फल खरीदने से पहले बेचने वाले का मजहब जान जाएं फिर तय करें कि उसे खरीदना है या नहीं। एक तरह से आपको इशारा किया जा रहा है कि किसके ठेले से आम लेना है या अन्य सामान लेना है। एक गरीब ठेले एवं दुकान वाले को इसके लिए प्रशासन ने मजबूर किया और इस फैसले को लागू करवाने वाली राजनीति को अलग नहीं कर सकते हैं, जो समय.समय पर देश के दुकानदारों की पहचान और उनके बहिष्कार का ऐलान करती रहती है, अनेक खबरें सुर्खियां बनी है। मुज़फ़्फ़रनगर जिला हमेशा से सुर्खियों में रहा है, फिर चाहे 2013 का दंगा हो या किसान आंदोलन में हर हर महादेव, अल्लाह हू अकबर के नारे लगे हो या कावड़ यात्रा आदि।
रोहित डी की किताब 2018 में प्रकाशित हुई पीपल्स कॉन्स्टिट्यूशन इसमें एक किस्सा रोहित डै लिखते हैं कि संभवत जीने के अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट का पहला फैसला है जो मुज़फ़्फ़रनगर जिले का है। कस्बा जलालाबाद यहां की नगर पालिका ने सब्जी बेचने के लिए एक ही आदमी को लाइसेंस दे दिया, बाकी हर किसी के लिए सब्जी बेचना मना हो गया। मोहम्मद यासीन पढ़े लिखे नहीं थे सब्जी बेचकर गुजारा करते थे, आठ लोगों के परिवार की सालाना कमाई डेढ़ सौ रुपए से कम थी। यासीन ने कोर्ट जाने का फैसला किया। वर्ष 1950 में ही संविधान लागू हुआ था, यासीन ने संविधान के मौलिक अधिकार को अपना आधार बनाया, उनका कहना था कि एक इंसान को व्यापार करने का लाइसेंस देकर बाकी लोगों को व्यवसाय करने से रोकना संविधान के अनुच्छेद 19 ए के अंतर्गत मिले किसी भी पैसे को अपने या कोई भी व्यवसाय व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता के अधिकार को बाधित करता है और यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। आज के मुजफ्फरनगर के पुलिस प्रशासन एवं यूपी सरकार को भी पढ़ना चाहिए और आप लोगों को भी ठेले पर सब्जी फल बेचने वाले हर दुकानदार को मोहम्मद यासीन का नाम मालूम होना चाहिए। संवैधानिक अनुच्छेद 32 हर व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार देता है।
27 फरवरी 1952 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम पतंजलि शास्त्री जस्टिस मेहर चंद महाजन जस्टिस बी के मुखर्जी और जस्टिस एन चंद्रशेखर अय्यर की बेंच ने इस केस को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला दिया। इस फैसले में कहा गया है कि किसी व्यवसाय को करने के लिए लाइसेंस फीस लगाना आयकर लगाने जैसा नहीं है। इस मामले में लाइसेंस फीस यासीन के मर्जी से व्यवसाय करने के उसके अधिकार को छीन रही है। संविधान का अनुच्छेद 19 ए हर नागरिक को व्यवसायिक सुरक्षा और स्वतंत्रता प्रदान करता है, हालांकि 1951 में जब संविधान में पहला संशोधन हुआ तब इन स्वतंत्रताओं के साथ कुछ वाजिब अपवाद जोड़ दिए गए, फिर भी अदालत ने नगर पालिका के बनाए नियमों को कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि एक सार्वजनिक सड़क पर दुकान लगाने के लिए नगर पालिका को लाइसेंस फीस वसूलने का अधिकार नहीं है। मोहम्मद यासीन ने यह मुकदमा अपने लिए नहीं बल्कि हर ठेला व चाय व दुकानदार के लिए जीता था। पहली बार कस्बे का एक आम आदमी संविधान के सहारे व्यवसाय की स्वतंत्रता के अधिकार का मुकदमा इस देश में जीत जाता है, कितना विश्वास रहा होगा, संविधान के सपनों और जजों के इंसाफ पर। इसकी कल्पना कीजिए आज इस मुजफ्फरनगर में 74 साल बाद किस.किस को अपनी दुकान या ठेले पर नाम लिखना पड़ता है,ताकि उसकी धर्म के आधार पर पहचान हो सके, बाजार में वह अपनी अपनी पहचान के साथ खड़ा हो सके यह आम नागरिक की व्यवसाय एवं स्वतंत्रता के खिलाफ है, जब उसे कहा जाता है कि मालिक या अपना नाम लिखिए।
आज इनका साथ कौन देगा और इनमें हिम्मत कहां से आएगी। इन्हें मालूम है कि प्रशासन के खिलाफ कोर्ट जाने का रास्ता उन्हें सुरंग में ले जाकर हमेशा के लिए बंद कर देगा क्योंकि 1950 में बुलडोजर नीति नहीं थी लेकिन 1950 के भारत का एक सब्जी विक्रेता यासीन सुप्रीम कोर्ट जाता है और आदेश लेकर आता है कि किसी सार्वजनिक सड़क पर दुकान लगाने के लिए नगर पालिका को लाइसेंस फीस वसूलने का अधिकार नहीं है। रोहित डे ने अपनी इस किताब में और सेमिनार पत्रिका में काफी विस्तार से लिखा है वह बताते हैं कि यासीन और उसके जैसे अन्य दुकानदारों के लिए इस मुकदमे का कितना महत्व था। यह इस बात से समझिए कि यासीन ने अपने दलित दोस्त नानू को ढोल के साथ पहले ही बुला रखा था। नानू ने पूरे जलालाबाद में ढोल बजाकर यह सूचना पहुंचाई की जनता और कस्बे के बीच मुकदमा हुआ था। जनता जीत गई और कस्बा हार गया है, क्या शानदार समय रहा होगा कि मोहम्मद यासीन सभी ठेले वालों के लिए सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा जीतकर वापस आता है। उसका दलित दोस्त ढोल बजाते हुए इसी मुज़फ़्फ़रनगर की जलालाबाद कस्बे में सबको बता रहा था, हमने अपने लिए नहीं सबके लिए यह मुकदमा जीता है।
यह सवाल ठेले और दुकान का नहीं है बसरते संविधान की आदर्श पर व्यापार और कारोबार की स्वतंत्रता पर हमला है। अगर यह हमला यासीन पर होगा तो यह हमला गोपाल और सुरेश पर भी होगा। आज हम कहां खड़े है पुलिस प्रशासन ने संविधान की किस प्रावधान के तहत किस धारा के तहत आदेश निकाला है, किसी भी व्यापारिक प्रतिष्ठान होटल कंपनी से लेकर चाय के ठेले तक को अपने हिसाब से नाम रखने की आजादी है। समझाना पड़ेगा कपड़ा, साबुन, तेल आदि बनाने वालों से भी कहा जाएगा कि आप ब्रांड के साथ.साथ अपने मालिक का नाम लिखें क्या यह हमारे लिए नफरत की सोच नहीं है? ऐसे आदेश सामाजिक अपराध है,जो सौहार्द के शांतिपूर्ण वातावरण को बिगड़ने में बल देते हैं।
नाम रखने की आजादी क्या आप विप्रो नहीं मालिक के नाम पर कंपनी का नाम हो प्रोडक्ट का नाम हो सिप्ला का नाम मालिक के मजहब के नाम पर रखो। प्रधानमंत्री मोदी के उस बयान की भी याद दिलाता है जब उन्होंने कपड़ों से पहचान की बात की थी। हर दुकानदार को अपना नाम रखने की आजादी है। यह कहीं नहीं लिखा है कि दुकानदार धर्म से जुड़े नाम नहीं रखेगा। 12 महीने व्रत और त्योहार चलते है। फल, सब्जी, ठेले से लोग खरीद कर खाते रहते हैं, किसी की पवित्रता इससे भंग नहीं होती।
संविधान अनुच्छेद 17 के अनुसार अस्पृश्यता अपराध छुआछूत की बीमारी निकालते है। शुद्धता एवं पवित्रता की जड़ से उसकी सोच से अब इसका आधार बदलकर धर्म किया जा रहा है। नए सिरे से अस्पृश्यता अनटचेबिलिटी स्थापित की, हमें कहां तक ले जा रही हैं। आज धर्म के आधार पर ठेला बनवा रहे हैं, कल जाति के आधार पर एवं गोत्र के आधार पर बनवाने लग जाएंगे और फिर उस हिसाब से तय करेंगे कि किसके ठेले या दुकानदार से गोलगप्पे खाने है और फल सब्जी खरीदने हैं। इनके पास राजनीति करने के लिए यह कैसा आदेश है जिसने दुकानों, ठेलो,चाय की दुकानों को पान की दुकानों को धर्म के आधार पर बांट दिया है। एक साथ रहने वाले एक मुस्लिम एवं एक हिंदू लिख रहा है इन्हें कितनी बेबसी और कितना बुरा लगा होगा। हमारा संविधान हमें बेबस नहीं करता वह हमारी शक्ति है, हर कमजोर आदमी की ताकत है, अक्सर दुकानदार अपनी पसंद से जाति और धर्म के आधार पर भी नाम रख लेते, लेकिन लोगों ने नाम नहीं रखे हैं। न्यूट्रल एवं अंग्रेजी नाम रखे हैं उनसे मालिक और अपना असली नाम लिखने के लिए कहा जाए यह दुखद है, क्या गरीब इतना लाचार है कि उसके संवैधानिक अधिकारों को इस तरह से कुचला जा रहा है। धीरे.धीरे या व्यवस्था का हिस्सा भी बांटा जाएगा। मुजफ्फरनगर पुलिस प्रशासन को अपने फैसले पर विचार करना चाहिए।
सवाल वाजिब है हर वर्ष कावड़िया की सेवाओं में मुस्लिम समाज बढ़.चढ़कर हिस्सा लेता है, सैकड़ो त्यौहार हर वर्ष मनाए जाते हैं जिसमें बहुत से त्यौहार को हिंदू मुस्लिम सिख इसाई आदि मिलजुल कर मनाते हैं। हर त्यौहार अमन चैन तरक्की भाईचारे का संदेश देता है। समझना यह भी है जिस ट्रक से सामान यहां मुजफ्फरनगर लाया गया, उसका चालक हिंदू है या मुसलमान। ट्रक का मालिक हिंदू है या मुसलमान, क्या अब हम इस बेचारे आम के लिए हिंदू एवं मुस्लिम विभाग बनाएंगे? एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए गैरमुस्लिम एवं मुस्लिम सड़क बनाएंगे। इस नफरत की सोच को हम किस पाताल लोक तक लेकर जाने वाले है। कोरोना के समय भी यह जहर फैलाया गया जब दुकानदारों से आधार कार्ड मांगे जाने लगे ताकि उनके नाम से जाति धर्म का पता चल सके और लोग ना खरीदें, सोचिए सड़क पर खड़ा एक गरीब इंसान कितना सुरक्षित महसूस करता होगा, उसकी बेबसी लाचारी को महसूस करने की जरूरत है। इसके असर में खुद पर ही न जाने वह कितने प्रकार से प्रतिबंध लगाता होगा। तमाम खबरें मिलेगी कि हर साल की कावड़ के समय मांस मछली की दुकान बंद रहती हैं, क्या प्रशासन कभी यह सोचता है कि उनके जीने के अधिकार का क्या होगा? संविधान के किसी प्रावधान में नहीं लिखा है फिर भी महीनो तक किसी की दुकान बंद कर दी जाती है, जो हिंदू एवं मुसलमान होते हैं। सरकार इसके लिए इन दुकानदारों को कोई मुआवजा या अनुदान राशि नहीं देती है। देश की लगभग 80 प्रतिशत जनता शराब, मांस और धूम्रपान का इस्तेमाल करती है। वैसे जो व्रत करते हैं वह तो वैसे भी नहीं खाते हैं, तो यह किन के लिए बंद किया जाता है? केवल सावन के महीने के समय नहीं होता, दूसरे त्योहारों के समय भी ऐसी खबरें मीडिया के द्वारा मिलती हैं। यह साफ.साफ आर्थिक बहिष्कार है, जिससे भोजन और खाने की शुद्धता में छुपा कर पेश किया जा रहा है। गरीब ठेले वाले के लिए भी यही मौका होता है कमाई का, उसे धर्म के आधार पर वंचित किया जा रहा है, क्योंकि शुद्ध शाकाहारी और वैष्णो ढाबा जैसा लेवल होता ही है, कोई शाकाहारी लिखकर मांसाहार नहीं बेचता है, यह विश्वास अभी तक किसी दुकानदार ने नहीं तोड़ा है। समझना यह भी होगा कि क्या अब जीएसटी टैक्स वेट स्टांप जुर्माना आदि का जो पैसा सरकारी खजाने में जमा होता है उसे भी अलग.अलग पहचान से जमा किया जाएगा एवं मताधिकार के प्रयोग के लिए पोलिंग बूथ भी जाति और धर्म के नाम से बनाए जाएंगे।
समझना भी मुश्किल नहीं है मुसलमान नाम से बूचड़खाने, मीट एक्सपोर्टर अल कबीर कौन है, मालिक, सभरवाल, अरब एक्सपोर्ट्स, मलिक कपूर, इंडस्ट्रीज मालिक, बिंद्रा साहब, मुजफ्फरनगर में ही मीट कंपनी के मालिक गैर मुस्लिम हैं। पुरानी परंपरा चली आ रही है अलीगंज लखनऊ में भगवान जगन्नाथ यात्रा होती है सभी समुदाय मिल जुल कर करते हैं उस तहजीब पर यह हमला हैं कि कौन क्या खाएगा, कौन क्या पहनेगा, कौन क्या खरीदेगा? इन सब पर प्रतिबंध लगाने से भारतीय संस्कृति का हनन है, जनता के असल मुद्दों को भटकाने के लिए देशवासियों को बांटने की कोशिश की जा रही है। डॉक्टर, टीचर, ब्लड डोनेशन, हवा, पानी आदि पर भी क्या यही मोहर लगाई जाएगी।
भारत में 60 प्रतिशत लोग 8000 महीना ही कमा पाते हैं क्या आप ऐसा नया भारत चाहते हैं? जहां फल सब्जी के ठेले पर नाम इस तरह से लिखे हो कि पता चले कि कौन सा ठेला मुसलमान का, कौन सा हिंदू का, इस सोच का इतिहास बहुत दूर का नहीं। 1930 के दशक की जर्मनी का प्रसंग बार.बार याद दिलाया जाता है जर्मनी आज तक उन घटनाओं को लेकर प्रायश्चित करता है उस सोच के लोगों को खोजना पड़ता है लेकिन भारत में इस सोच को एक धर्म का पजामा पहनकर बुलंद किया जा रहा है। हिटलर की जर्मनी में भी यही हुआ था 1 अप्रैल 1933 को यहूदियों के खिलाफ बहिष्कार का आह्वान किया। यहूदी बिजनेसमैन और वकीलों, डॉक्टर के बहिष्कार का ऐलान दफ्तरों और दुकानों के आगे हिटलर की पार्टी की सेना खड़ी हो गई। यहूदी दुकानों के आगे स्टार ऑफ डेबिट के निशान बनाए जाने लगे। लिखा जाने लगा कि यहूदी दुकानों से सामान न खरीदें । भारत में पहचान के आधार पर भेदभाव की अब बीमारी जर्मनी की तरह होती जा रही है। आज भी लोग घरों में जाति धर्म के आधार पर ही नहीं काम करने वाले लोगों के लिए अलग बर्तन रखते हैं। यह एक तरह की छुआछूत है, जो हमारे समाज में छिप कर रहती है, लेकिन राजनीति का सहारा लेकर खूंखार बनकर बाहर आने लगी है। आम इंसान के जीवन पर हमला करती है, दूसरे नजरिए से भी सोचने की जरूरत है, क्या आप अपने बच्चों को इन हमलों के लिए इस तरह की सोच के पीछे दंगाई बनना चाहेंगे?
लेखकः- चौधरी शौकत अली चेची, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भाकियू (अंबावता) एवं पिछड़ा वर्ग उत्तर प्रदेश सचिव सपा है।