

गोवर्धन पर्व के अवसर पर सूरजपुर आर्य समाज मंदिर में विशेष यज्ञ एवं “गोकरुणानिधि” के सिद्धांतों पर विचार
मौहम्मद इल्यास- “दनकौरी”/ सूरजपुर
गोवर्धन पर्व के पावन अवसर पर सूरजपुर आर्य समाज मंदिर में एक विशेष यज्ञ का आयोजन किया गया। इस यज्ञ में आर्य समाज सूरजपुर के महामंत्री पंडित धर्मवीर आर्य ने वैदिक रीति से वेदमंत्रों के उच्चारण के साथ उपस्थित श्रद्धालुओं को गौ संरक्षण और अहिंसा धर्म का संदेश दिया।
यज्ञ में स्थानीय नागरिकों, आर्य समाज के कार्यकर्ताओं एवं गौसेवा से जुड़े अनेक श्रद्धालुओं ने आहुतियाँ प्रदान कीं। इस अवसर पर पंडित धर्मवीर आर्य ने महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ “गोकरुणानिधि” से गौमाता के महत्व, उसके आर्थिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक लाभों पर विस्तृत प्रकाश डाला।
गौ – केवल पशु नहीं, संपूर्ण जीवन की आधारशिला
पंडित धर्मवीर आर्य ने कहा कि भारतीय संस्कृति में गौ को “माता” का दर्जा इसलिए दिया गया है क्योंकि वह मनुष्य को जन्म से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पोषण देती है।
महर्षि दयानंद ने अपने ग्रंथ गोकरुणानिधि में गणितीय रूप से यह सिद्ध किया कि एक गौ अपने जीवनकाल में जितने मनुष्यों का पालन अपने दूध, गोबर, मूत्र, श्रम और संतानों के माध्यम से करती है, उसकी तुलना में उसे मारने से मिलने वाला मांस नगण्य है।
उन्होंने बताया कि –
“एक गाय अपने जीवन में लगभग साढ़े चार लाख मनुष्यों का पालन अपने दूध और श्रम से करती है, जबकि उसकी हत्या से केवल अस्सी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। अतः जो लोग तुच्छ स्वाद के लिए लाखों प्राणियों का हनन करते हैं, वे संसार के सबसे बड़े अहितकारी हैं।”
यह गणना न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक गौ केवल दूध ही नहीं देती, बल्कि खेती, परिवहन, जैविक खाद, और औषधि के रूप में भी समाज के प्रत्येक वर्ग को लाभ पहुँचाती है।
गौपालन और वैदिक अर्थनीति
महर्षि दयानंद ने गोकरुणानिधि में गौपालन को भारत की आर्थिक रीढ़ कहा है।
उन्होंने स्पष्ट किया कि –
“जब तक गोरक्षा रहेगी, तब तक भारत की कृषि और आरोग्य दोनों अक्षुण्ण रहेंगे।”
गाय का गोबर और मूत्र — ये दोनों ही जैविक खेती के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। गोबर से प्राप्त खाद मिट्टी की उर्वरता बनाए रखती है, और मूत्र से तैयार की गई दवाएँ रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती हैं।
आज जब आधुनिक कृषि रासायनिक खादों और कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से जूझ रही है, तब गो-आधारित प्राकृतिक खेती एक स्थायी समाधान के रूप में उभर रही है।
महर्षि दयानंद के अनुसार —
“गाय और बैल के बिना कृषि एक मृत देह के समान है। जिस समाज ने गोरक्षा छोड़ी, उसने अपनी समृद्धि का मूल नष्ट कर दिया।”
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
गोवर्धन पर्व स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोरक्षा और पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक है।
पंडित धर्मवीर आर्य ने कहा कि जब इंद्रदेव ने ब्रज पर प्रलयंकारी वर्षा की, तब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर गौओं और ब्रजवासियों की रक्षा की थी।
यही कारण है कि गोवर्धन पूजा केवल पूजा नहीं, बल्कि गोरक्षा और प्रकृति रक्षा का संकल्प है।
उन्होंने आगे कहा –
“महर्षि दयानंद के काल में जब अंग्रेजी हुकूमत के संरक्षण में गौवध बढ़ा, तब उन्होंने निडर होकर ‘गोकरुणानिधि’ लिखी — जिससे भारत के जन-मन में फिर से गौ के प्रति श्रद्धा जागृत हुई।”
यह ग्रंथ न केवल धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि इसमें विज्ञान, गणित, अर्थशास्त्र और पर्यावरण विज्ञान का समन्वय देखने को मिलता है।
गोरक्षा और आधुनिक समाज
आज जब भारत सतत विकास (Sustainable Development) की बात करता है, तब गोरक्षा आंदोलन केवल धार्मिक न होकर एक पर्यावरणीय और आर्थिक आंदोलन बन गया है।
गाय के पंचगव्य उत्पाद — दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र — न केवल पोषण प्रदान करते हैं, बल्कि औषधीय गुणों से भरपूर हैं। आयुर्वेद में इनका वर्णन रोगनाशक और रोगप्रतिरोधक दोनों रूपों में किया गया है।
गौ के गोबर से निर्मित बायोगैस और ऑर्गैनिक खाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बना सकते हैं।
गौमूत्र आधारित औषधियाँ कैंसर, डायबिटीज़ और लीवर रोगों में भी उपयोगी सिद्ध हो रही हैं।
वैदिक दृष्टि से गौ की महत्ता
पंडित धर्मवीर आर्य ने यजुर्वेद के प्रथम मंत्र का उल्लेख करते हुए कहा –
“अध्या यजमानस्य पशून पाहि।”
अर्थात् — हे मनुष्य! तू उन पशुओं की रक्षा कर, जो तेरा पालन करते हैं।
उन्होंने कहा कि वैदिक समाज में पशु केवल उपयोग की वस्तु नहीं, बल्कि सहचर (companion) थे।
गाय को “अघ्न्या” कहा गया है — अर्थात् जिसे मारा न जाए।
वेदों में गौ का वर्णन “सर्वदेवमयी” के रूप में किया गया है, क्योंकि उसमें पोषण, सेवा, स्नेह और सहनशीलता का पूर्ण समन्वय है।
पशुहत्या और मानवता पर प्रश्नचिन्ह
महर्षि दयानंद ने अपने ग्रंथ में तीखे शब्दों में लिखा —
“जो पशु मनुष्य का पालन करता है, उसके गले पर छुरा चलाना सबसे बड़ा पाप है। ऐसे मनुष्य न केवल दया से रहित हैं, बल्कि संपूर्ण मानवता के शत्रु हैं।”
उन्होंने चेताया कि यदि गोरक्षा न रही, तो समाज का आर्थिक और नैतिक ढाँचा दोनों टूट जाएंगे।
वर्तमान परिदृश्य में यह चेतावनी और भी प्रासंगिक है, जब गौवध और मांस व्यापार ने पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा और सामाजिक संवेदनशीलता पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं।
गाय के उत्पादों का औषधीय और वैज्ञानिक मूल्य
आधुनिक विज्ञान भी अब यह स्वीकार कर रहा है कि भारतीय देशी गाय का दूध, विशेषकर A2 प्रकार का दूध, रोग प्रतिरोधक क्षमता, मस्तिष्क विकास और हृदय स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।
गाय के घी से निर्मित दीपक जलाने से वातावरण में नकारात्मक सूक्ष्मजीवों की संख्या कम होती है — यह बात CSIR और IIT की कई प्रयोगशालाओं में प्रमाणित हुई है।
गोमूत्र में उपस्थित “कार्बोलिक एसिड” और “फेनोल” तत्व जीवाणुनाशक हैं, जो अनेक रोगों से रक्षा करते हैं।
महर्षि दयानंद ने इन तथ्यों को विज्ञानपूर्वक समझाया और बताया कि “गाय केवल धार्मिक नहीं, बल्कि जीवन का रक्षक तत्व है।”
सामाजिक एकता और गोरक्षा
गाय किसी एक धर्म, जाति या भाषा की नहीं — वह संपूर्ण मानवता की धरोहर है।
गोरक्षा का अर्थ केवल हिंदू भावना नहीं, बल्कि “प्रकृति, पर्यावरण और समरस समाज” की रक्षा है।
पंडित धर्मवीर आर्य ने कहा –
“यदि हम सभी मिलकर गौपालन को अपनाएँ, तो गाँव-गाँव आत्मनिर्भर बन सकता है, किसानों की आमदनी दोगुनी हो सकती है, और पर्यावरण शुद्ध रह सकता है।”
उन्होंने युवाओं से आग्रह किया कि वे गौशालाओं में सेवा करें, जैविक खेती अपनाएँ और गौ उत्पादों का उपयोग बढ़ाएँ।
समापन – यज्ञ और संकल्प
यज्ञ के अंत में उपस्थित श्रद्धालुओं ने सामूहिक रूप से “गोरक्षा संकल्प” लिया कि वे किसी भी प्रकार से गौ या अन्य पशुओं की हिंसा में सहभागी नहीं होंगे और अधिक से अधिक लोगों को गौमाता के प्रति श्रद्धा जगाने का कार्य करेंगे।
सूरजपुर आर्य समाज के अध्यक्ष ने भी कहा कि गौसेवा केवल धर्म नहीं, बल्कि राष्ट्रसेवा है।

महर्षि दयानंद की प्रार्थना
लेख का समापन महर्षि दयानंद के शब्दों से —
“हे परमेश्वर! जो गौ और अन्य निर्दोष पशु मारे जाते हैं, उन पर तू दया कर। मांसाहारियों के हृदय में करुणा का प्रकाश दे, जिससे वे इस घोर अधर्म से बच सकें।”