धरतीपुत्र की सपा बनाम अखिलेश की सपा


🗞️ संपादकीय: सपा की सियासत—मुलायम की विरासत से अखिलेश की दूरी
उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर उबाल पर है। मान्यवर कांशीराम की पुण्यतिथि पर बहुजन समाज पार्टी ने लखनऊ में शक्ति प्रदर्शन कर राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया है। बसपा की यह हुंकार सिर्फ भाजपा या कांग्रेस के लिए चुनौती नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी (सपा) के लिए एक गहरी चिंता का विषय है। सवाल उठता है — क्या मायावती की यह नई सक्रियता सपा के PDA (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) समीकरण को झकझोर देगी?

🔹 धरतीपुत्र की सपा बनाम अखिलेश की सपा

मुलायम सिंह यादव की सपा और अखिलेश यादव की सपा में अब जमीन-आसमान का अंतर साफ दिखता है।
जहां मुलायम सिंह यादव का समाजवाद जमीनी था — किसान, मजदूर, पिछड़े और अल्पसंख्यक उनकी नीतियों के केंद्र में थे — वहीं अखिलेश की सपा अब एक “ब्रांडेड सियासत” की ओर झुक गई है। पार्टी का जनाधार अब सोशल मीडिया अभियानों और प्रतीकात्मक नारों तक सीमित होता जा रहा है।
मुलायम के दौर की सपा में कार्यकर्ता खुद को “आंदोलन का सिपाही” मानता था, जबकि आज की सपा में वह केवल “फोटो ऑप” का हिस्सा बन गया है।

🔹 मुस्लिम वोट बैंक—सिर्फ तुष्टीकरण या वास्तविक साझेदारी?

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि सपा की सत्ता यात्रा में मुस्लिम वोट बैंक की अहम भूमिका रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या तीन बार की सत्ता में सपा ने मुसलमानों के लिए कोई ठोस नीति बनाई? शिक्षा, रोज़गार और सुरक्षा के मोर्चे पर आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों की स्थिति जस की तस रही।
आज, जब मुसलमानों पर सियासी और सामाजिक दबाव बढ़ा है, अखिलेश यादव का रुख उल्लेखनीय रूप से “मौन” है। उन्होंने खुद को “सेक्युलर” के नए फ्रेम में पेश करने के लिए मुस्लिम मुद्दों से दूरी बनाई है — लेकिन यह रणनीति सियासी तौर पर उलटी भी पड़ सकती है।

🔹 अतीक, मुख्तार और आज़म—मौन स्वीकृति का संकेत

अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी और आज़म खान के खिलाफ जिस तरह की कार्रवाई हुई, उसमें सपा का मौन बहुत कुछ कहता है। पार्टी ने किसी भी स्तर पर मुखर विरोध नहीं किया, जिससे यह संदेश गया कि अखिलेश यादव “इमेज मैनेजमेंट” के चक्कर में अपने पुराने समर्थक वर्ग से कटते जा रहे हैं।
यह वही सपा है जो कभी अपने कार्यकर्ताओं के खिलाफ हुई एक लाठीचार्ज पर विधानभवन तक धरना देती थी।

🔹 सपा-भाजपा समीकरण—डील या डर?

राजनीतिक गलियारों में चर्चाएं तेज हैं कि सपा और भाजपा के बीच “अनकही समझदारी” का दौर चल रहा है। विरोध की भाषा तो है, लेकिन तीखापन गायब है।
विधानसभा से लेकर सड़क तक सपा की लड़ाई अब प्रतीकात्मक हो गई है। यह राजनीतिक चुप्पी कहीं भाजपा के लिए मौन समर्थन तो नहीं? “सपा-भाजपा भाई-भाई” का नारा शायद अतिशयोक्ति लगे, लेकिन कई राजनीतिक घटनाक्रम इसकी पुष्टि भी करते हैं।

🔹 बसपा का उभार—सपा के लिए सबसे बड़ा खतरा

अगर बसपा की हालिया सक्रियता जारी रही, तो इसका सीधा नुकसान सपा को होगा। मायावती अब दलित-मुस्लिम एकता के पुराने फार्मूले को फिर से सक्रिय करने की रणनीति में हैं। सपा की कमजोर होती संगठनात्मक पकड़ और नेतृत्व की झिझक बसपा के लिए अवसर बन सकती है।
2027 के विधानसभा चुनाव से पहले जो भी समीकरण बनेंगे, उनमें सपा की स्थिति निर्णायक के बजाय “पीछे छूट जाने वाली” दिखाई पड़ रही है।

🔹 राजनीतिक निष्कर्ष

सपा के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती भाजपा नहीं, बल्कि उसकी अपनी दिशा और पहचान का संकट है।
अगर पार्टी ने मुलायम सिंह यादव की विरासत — किसानों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की साझी राजनीति — को दोबारा नहीं अपनाया, तो आने वाले चुनाव में वह केवल पोस्टरों तक सीमित रह जाएगी।
बसपा की हुंकार और भाजपा की रणनीति के बीच सपा की चुप्पी आने वाले वर्षों में उसके अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकती है।


🖋️ : मौहम्मद इल्यास “दनकौरी”
(प्रधान संपादक, विजन लाइव न्यूज़)

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