दास्तान-ए-कर्बला (पार्ट-2):-

हर दौर में कर्बला ज़िंदा है,
हर दिल में हुसैन बसते हैं।”

दास्तान-ए-कर्बला (पार्ट-2)
कर्बला की ओर कूच और यज़ीद का ज़ुल्म
रिपोर्ट: विजन लाइव न्यूज़ टीम

कहते हैं— “हर दौर में कर्बला ज़िंदा है,
हर दिल में हुसैन बसते हैं।”

कर्बला की दास्तान केवल 1400 साल पहले की एक घटना नहीं है। यह हर युग के लिए एक प्रेरणा है। आज भी जब कहीं अन्याय, तानाशाही या ज़ुल्म होता है, तो इमाम हुसैन की याद हमें हिम्मत देती है।


प्रस्तावना

इस्लाम के इतिहास में कर्बला की त्रासदी एक ऐसा अध्याय है, जिसे केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से भी गहराई से समझने की आवश्यकता है। यह कहानी केवल एक युद्ध या सत्ता संघर्ष की नहीं है, बल्कि सत्य, न्याय और सिद्धांतों के लिए सर्वोच्च बलिदान की मिसाल है। इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) और उनके 72 साथियों की शहादत, इस्लामिक इतिहास में इंसाफ़ और हक़ के लिए खड़े होने की सबसे बड़ी मिसाल मानी जाती है।


कर्बला की ओर कूच

हज़रत अली के पुत्र और रसूल-ए-इस्लाम (स.अ.) के नवासे इमाम हुसैन (अ.) मदीना में रह रहे थे जब यज़ीद ने सत्ता हासिल की। यज़ीद ने इस्लामिक मूल्यों के विरुद्ध शासन चलाना शुरू कर दिया। वह चाहता था कि इमाम हुसैन उसकी बैअत करें यानी उसे वैध शासक स्वीकार करें। परंतु इमाम हुसैन ने सत्य से समझौता करने से इनकार कर दिया।

जब यज़ीद की ओर से बैअत का दबाव बढ़ा, तो इमाम हुसैन ने मदीना छोड़ दिया और मक्का की ओर रवाना हुए। मक्का में रहते हुए उन्हें कूफ़ा से हजारों पत्र प्राप्त हुए, जिनमें लोगों ने उन्हें आमंत्रित किया और समर्थन का वादा किया। इमाम हुसैन ने अल्लाह पर भरोसा करते हुए अपने परिवार और कुछ वफ़ादार साथियों के साथ कूफ़ा की ओर कूच कर दिया।


कर्बला की तपती ज़मीन पर

इमाम हुसैन का क़ाफ़िला जब इराक़ के रेगिस्तान में कर्बला नामक स्थान पर पहुँचा, तो उन्हें यज़ीद की सेना ने रोक लिया। यज़ीद के सेनापति उबैदुल्लाह इब्न ज़ियाद और उमर इब्ने सअद ने उन्हें कूफ़ा में प्रवेश करने से रोकते हुए कहा कि या तो बैअत करो या तैयार रहो जंग के लिए।

यह 2 मुहर्रम 61 हिजरी की बात थी जब इमाम हुसैन का क़ाफ़िला कर्बला में रुका। यहाँ से ज़ुल्म की वह दास्तान शुरू हुई जो आज भी आंखों को नम कर देती है।


पानी पर पहरा, भूख-प्यास की पीड़ा

यज़ीद की फौज ने फ़ुरात नदी पर कब्ज़ा कर लिया और इमाम हुसैन के खेमे पर पानी बंद कर दिया। 7 मुहर्रम से लेकर 10 मुहर्रम तक, यानी तीन दिनों तक इमाम हुसैन, उनके बच्चे, महिलाएं और साथी प्यास से तड़पते रहे। 6 महीने के मासूम अली असग़र तक को पानी नहीं दिया गया।

एक ओर यज़ीद की सेना में हजारों सैनिक थे, दूसरी ओर इमाम हुसैन के पास केवल 72 साथियों की छोटी सी टोली। बावजूद इसके, किसी ने भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।


10 मुहर्रम: कर्बला की जंग

10 मुहर्रम (आशूरा) का दिन इतिहास का सबसे दर्दनाक दिन है। इस दिन एक-एक कर इमाम हुसैन के वफ़ादार साथी जंग के मैदान में उतरे और शहीद हो गए। इमाम हुसैन के भाई हज़रत अब्बास, बेटे अली अकबर, भतीजे क़ासिम और अंत में इमाम स्वयं मैदान में उतरे।

हर शहादत एक कहानी थी, एक क़ुर्बानी थी, एक संदेश था – “ज़ुल्म के सामने सिर नहीं झुकाना।”

इमाम हुसैन को भी शहीद कर दिया गया और उनका सिर काटकर यज़ीद के दरबार में भेजा गया।


ज़ुल्म की इंतेहा और इंसाफ़ की मिसाल

इस जंग में केवल एक उद्देश्य था – यज़ीद की सत्ता को वैध ठहराना। लेकिन इमाम हुसैन ने हक़ और इंसाफ़ के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी, पर सच्चाई से समझौता नहीं किया।

कर्बला केवल मुस्लिम इतिहास की नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक चेतावनी है कि अगर अत्याचार के विरुद्ध कोई आवाज़ न उठाई जाए, तो अन्याय बढ़ता है। इमाम हुसैन की शहादत हमें यह सिखाती है कि “ज़ालिम के ख़िलाफ़ खड़े होना ही सबसे बड़ा इबादत है।”


कानूनी डिस्क्लेमर (Disclaimer):

नोट: यह लेख इस्लामी ऐतिहासिक स्रोतों, पुस्तकों, मौलवियों की व्याख्याओं एवं विद्वानों की मान्य मान्यताओं पर आधारित है। यह रिपोर्ट किसी समुदाय, पंथ या धर्म विशेष की भावना को ठेस पहुँचाने हेतु नहीं लिखी गई है। यह महज़ ऐतिहासिक तथ्य और धार्मिक मूल्यों की जानकारी देने हेतु प्रस्तुत की गई है। “विजन लाइव न्यूज़” इस लेख की सामग्री के किसी भी प्रकार के दुरुपयोग, धार्मिक उन्माद या गलत व्याख्या के लिए जिम्मेदार नहीं है। पाठकों से अनुरोध है कि इसे एक धार्मिक इतिहास और इंसानी मूल्य के परिप्रेक्ष्य से ही देखें।


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