बहादुर शाह ज़फ़र : आख़िरी मुग़ल, पहली आज़ादी की आवाज़


✍️ चौधरी शौकत अली चेची


प्रस्तावना

भारत के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जो केवल शासन नहीं, बल्कि संघर्ष, बलिदान और एकता के प्रतीक बन जाते हैं। अबू ज़फर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फ़र ऐसा ही एक नाम है — एक शासक, कवि, देशभक्त और 1857 की क्रांति के मार्गदर्शक।


प्रारंभिक जीवन

बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्टूबर 1775 ई. को दिल्ली में हुआ। वे अकबर शाह द्वितीय के दूसरे पुत्र थे। उनकी माता लालबाई, एक हिंदू राजपूत कायस्थ परिवार की राजकुमारी थीं, जिससे ज़फ़र के व्यक्तित्व में हिंदू-मुस्लिम एकता की भावना बाल्यकाल से ही रची-बसी थी।

1837 में पिता अकबर शाह द्वितीय के निधन के बाद, 62 वर्ष की आयु में वे मुगल साम्राज्य के 20वें और अंतिम सम्राट बने।


आज़ादी की लड़ाई में भूमिका

1857 में जब हिंदुस्तान की आज़ादी की चिंगारी भड़की, तो दिल्ली, मेरठ और उत्तर भारत के विद्रोही सैनिकों तथा राजा-महाराजाओं ने बहादुर शाह ज़फ़र को “हिंदुस्तान का सम्राट” घोषित किया।
उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को सर्वोपरि रखते हुए एक संचालन समिति का गठन किया, जिसमें दोनों समुदायों के सदस्य समान रूप से शामिल थे। समिति के प्रथम सेनापति स्वयं बहादुर शाह ज़फ़र थे, जबकि उनके सचिव हिंदू स्वतंत्रता सेनानी मुकुंद थे।

नाना साहब पेशवा और अजीमुल्ला ख़ाँ ने विदेशों में जाकर क्रांति की रूपरेखा तैयार की। 30 मई 1857 को क्रांति शुरू करने की योजना थी, किंतु मेरठ के सैनिकों के जोश के कारण यह 10 मई 1857 को ही प्रारंभ हो गई।
मेरठ के सैनिकों में 52 मुसलमान और 33 हिंदू थे — जो भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल है।


गिरफ्तारी और शहादत

20 सितंबर 1857 को अंग्रेज अधिकारी मेजर विलियम हार्डसन ने बहादुर शाह ज़फ़र को हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार किया।
अगले ही दिन उनके तीन पुत्र — मिर्ज़ा मुगल (30 वर्ष), मिर्ज़ा खिजर सुल्तान (25 वर्ष) और मिर्ज़ा अबू बख्त (18 वर्ष) — को पकड़कर खूनी दरवाज़ा के निकट गोली मार दी गई।

अंग्रेज अधिकारी ने जब अपमानजनक शब्द कहे, तो बहादुर शाह ज़फ़र ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया —

“गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,
तख़्त लंदन तक चलेगी तेग-ए-हिंदुस्तान की।”


निर्वासन और मृत्यु

अंग्रेज़ों ने उन्हें दिल्ली से रंगून (बर्मा) निर्वासित कर दिया।
उनकी अंतिम इच्छा थी कि “मुझे हिंदुस्तान की मिट्टी में ही दफनाया जाए।”
लेकिन 7 नवंबर 1862 को 86 वर्ष की आयु में रंगून में ही उनका निधन हुआ।
आज भी वहां उनकी मजार “दरगाह-ए-बहादुर शाह ज़फ़र” के नाम से जानी जाती है।


कविताएँ और रचनाएँ

ज़फ़र न केवल शासक, बल्कि उर्दू के विख्यात शायर भी थे। उनकी कई रचनाएँ भारतीय स्वतंत्रता के भाव से ओतप्रोत हैं।
उनकी प्रसिद्ध ग़ज़लें आज भी अमर हैं —

“लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किसकी बनी है आलम-ए-नापायेदार में।”

और जब उन्हें अहसास हुआ कि अपने वतन की मिट्टी में दफ़न न हो पाएँगे, उन्होंने लिखा —

“कितना है बदनसीब ‘ज़फ़र’, दफ़्न के लिए दो गज़ ज़मीन भी न मिली कूए-यार में।”


विरासत और स्मृति

भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश — तीनों देशों में आज भी बहादुर शाह ज़फ़र का नाम एकता, त्याग और अदम्य साहस का प्रतीक है।
भारत में कई सड़कों और संस्थानों का नाम उनके नाम पर रखा गया है।
ढाका के विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह ज़फ़र पार्क कर दिया गया।

उन्होंने यह साबित किया कि हिंदुस्तान की असली ताक़त उसकी एकता और विविधता में निहित है।


निष्कर्ष

बहादुर शाह ज़फ़र केवल एक सम्राट नहीं, बल्कि एक विचार थे — स्वतंत्रता, सहअस्तित्व और साहस का विचार
उनका जीवन हमें यह संदेश देता है कि धर्म, जाति और मजहब से ऊपर उठकर मातृभूमि के लिए एक होना ही सच्ची देशभक्ति है।


⚖️ कानूनी अस्वीकरण (Legal Disclaimer):

यह लेख केवल शैक्षणिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जानकारी के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें व्यक्त विचार लेखक के निजी अध्ययन और ऐतिहासिक अभिलेखों पर आधारित हैं। लेख का उद्देश्य किसी व्यक्ति, संस्था या समुदाय की धार्मिक या राजनीतिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है।


लेखक:- चौधरी शौकत अली चेची, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष — किसान एकता संघ व सचिव — पिछड़ा वर्ग समाजवादी पार्टी, उत्तर प्रदेश हैं।

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