आचरण और जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही पर एडवोकेट किशन लाल पाराशर की ऐतिहासिक टिप्पणी


🔥 विशेष लेख |  आचरण और जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही पर एडवोकेट किशन लाल पाराशर की ऐतिहासिक टिप्पणी

मौहम्मद इल्यास – “दनकौरी”
संदर्भ: एडवोकेट किशन लाल पाराशर द्वारा दिनांक 24 नवंबर 2025 को संसद के दोनों सदनों—लोकसभा एवं राज्यसभा—के माननीय अध्यक्षों को भेजा गया पत्र।


भूमिका

भारत का लोकतंत्र विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में से एक है। इसकी जड़ें जनता के विश्वास, जनप्रतिनिधियों के दायित्व और लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा में गहराई से स्थापित हैं। संसद केवल एक भवन नहीं—बल्कि 140 करोड़ भारतीयों की आवाज़ का प्रतिनिधि स्थल है।

इसी लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में लोकतंत्र सेनानी, वरिष्ठ अधिवक्ता, पूर्व सभापति कृषि मंडी समिति जेवर तथा अधिवक्ता परिषद गौतमबुद्धनगर के संरक्षक एडवोकेट किशन लाल पाराशर ने संसद के दोनों सभापतियों को एक महत्वपूर्ण पत्र लिखकर जनप्रतिनिधियों के आचरण, उनकी जिम्मेदारियों और सार्वजनिक अपेक्षाओं पर गंभीर सवाल उठाए हैं।

उनका यह पत्र केवल शिकायत नहीं—
बल्कि भारत के लोकतांत्रिक स्वास्थ्य पर एक सजग नागरिक की चेतावनी है।


एडवोकेट किशन लाल पाराशर : एक परिचय

किशन लाल पाराशर—एक ऐसा नाम जो
✔ ग्रामीण अंचल से उठकर राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक चेतना का प्रतीक बना
✔ लोकतंत्र सेनानी के रूप में आपातकाल के समय के संघर्षों का साक्षी रहा
✔ कृषि, न्याय और जनकल्याण के मुद्दों पर निरंतर संघर्षरत रहा
✔ ग्रामीण न्याय प्रणाली, अधिवक्ता अधिकारों और स्थानीय प्रशासनिक सुधारों पर सक्रिय भूमिका निभाता रहा

उनका परिचय कुछ इस प्रकार है—

नाम: एडवोकेट किशन लाल पाराशर

पेशे से: अधिवक्ता

विशेष पहचान: लोकतंत्र सेनानी

पूर्व पद: सभापति – कृषि उत्पादन मंडी समिति, जेवर

वर्तमान भूमिका: संरक्षक – अधिवक्ता परिषद, गौतमबुद्धनगर

निवास: कसबा रबूपुरा , जिला गौतमबुद्धनगर

किशन लाल पाराशर उन गिने-चुने लोगों में से हैं जो गांव की मिट्टी से उठकर लोकतंत्र और संविधान को जीवन का मूलमंत्र मानते हैं।


पत्र का सार : संसद के आचरण पर गंभीर प्रश्न

उनके पत्र का मूल स्वर संसद के गिरते आचरण की तरफ ध्यान खींचता है।
वे लिखते हैं कि—

“पिछले कई सत्रों में सदस्यों का आचरण जनता को दुखी कर रहा है।”

उनके अनुसार—

कई सदस्य बिना अध्ययन, बिना तैयारी के सदन में आते हैं

आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, कृषि संबंधी विषयों की समझ सीमित है

बहस की जगह शोर-शराबा

तर्कों की जगह नारेबाजी

मर्यादा की जगह असभ्यता

और सदन को सब्ज़ी मंडी जैसा माहौल बनाने की गलत प्रवृत्ति बढ़ रही है

अपने शब्दों में वे लिखते हैं—

“जनता विद्वान, योग्य और विषय-विशेषज्ञ प्रतिनिधियों को संसद भेजती है; लेकिन कई बार सदन में वह गुणवत्ता दिखाई नहीं देती।”


जनता की अपेक्षाएँ : मुद्दे जो सदन में प्राथमिकता पाने चाहिए

किशन लाल पाराशर ने अपने पत्र में वह मूल एजेंडा भी लिखा है, जिस पर संसद को सबसे पहले बहस करनी चाहिए—

(1) रोटी

गरीबी, खाद्य सुरक्षा, रोजगार, न्यूनतम वेतन, महंगाई जैसे सवाल सदन के केंद्र में हों।

(2) कपड़ा

टेक्सटाइल उद्योग, हथकरघा, MSME और श्रमिकों का भविष्य।

(3) मकान

सभी नागरिकों के लिए आवास, शहरी बेघरी, PMAY की पारदर्शिता, भूमि सुधार।

(4) स्वास्थ्य

ग्रामीण स्वास्थ्य ढाँचा, सरकारी अस्पतालों की कमी, दवाइयों की महंगाई, महिलाओं की स्वास्थ्य सुरक्षा।

(5) सुरक्षा

आंतरिक सुरक्षा, सीमा सुरक्षा, डिजिटल सुरक्षा, डेटा प्रोटेक्शन।

(6) कृषि सम्मान

न्यूनतम समर्थन मूल्य, खाद–बीज–डीजल संकट, किसानों का पलायन, मंडियों की दुरवस्था।

(7) स्वदेशी

घरेलू उद्योगों को प्राथमिकता, आयात पर नियंत्रण, भारतीय अर्थव्यवस्था का सशक्तिकरण।

(8) भ्रष्टाचार

न्याय व्यवस्था, पुलिस तंत्र, आयकर विभाग, और विकास योजनाओं में पारदर्शिता।

वे स्पष्ट लिखते हैं—

“देश स्वदेशी से भरपूर होना चाहिए और भ्रष्टाचार को समाप्त करने पर संसद को गंभीरता से काम करना चाहिए।”


असंसदीय व्यवहार पर उनकी आपत्तियाँ

किशन लाल पाराशर ने विपक्ष और सत्ता—दोनों के कुछ व्यवहारों पर आपत्ति जताई है।
विशेष रूप से उन्होंने जिस प्रकार के आचरण का उल्लेख किया है, वह लोकतांत्रिक मूल्यों पर सीधा प्रश्न है—

सदन में अनुशासनहीन भाषा का उपयोग

अनावश्यक हंगामा

राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति जैसे विषयों पर गलत संदेश देना

धार्मिक, सामाजिक और संवेदनशील मुद्दों पर अनुचित टिप्पणी

विदेशी राजनीतिक मुद्दों पर देश की संसद में अनावश्यक बयानबाजी

महत्वपूर्ण विधेयकों पर बहस की जगह विलंब रणनीति

वे लिखते हैं—

“संसद किसी संगठन का मंच नहीं, बल्कि राष्ट्र का सर्वोच्च विधायी मंदिर है।”


पत्र में उठाए गए लोकतांत्रिक पहलू

उनका यह पत्र तीन प्रमुख लोकतांत्रिक चिंताओं को उजागर करता है—


  1. संसद की मर्यादा

भारत की संसद दुनिया के उन संस्थानों में से है जहाँ—

विविधता

कई भाषाएँ

कई संस्कृतियाँ

कई विचारधाराएँ

एक ही छत के नीचे राष्ट्रहित में चर्चा करती हैं।

लेकिन यदि वही स्थान हंगामे, रुकावट और अवमानना का केंद्र बन जाए, तो लोकतंत्र कमजोर होता है।


  1. जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही

संसद सदस्य—
✔ देश का कानून बनाते हैं
✔ जनता के प्रतिनिधि होते हैं
✔ विकास की दिशा तय करते हैं

उनसे अपेक्षा है कि—

वे पढ़कर आएं

विषय समझें

लॉजिक के साथ बहस करें

देश की प्रतिष्ठा बढ़ाएँ


  1. राष्ट्रीय एजेंडा बनाम राजनीतिक एजेंडा

कई बार राजनीतिक विवाद राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी पड़ जाते हैं।
जैसे—

गरीबी

कृषि

रोजगार

शिक्षा

सुरक्षा

इन पर कम चर्चा, और राजनीतिक टकराव पर अधिक फोकस।

किशन लाल पाराशर इसी बिंदु पर सबसे गहरी चोट करते हैं—

“विपक्ष और सत्ता—दोनों को याद रखना चाहिए कि जनता मुद्दों पर बहस चाहती है, न कि टकराव।”


भारतीय लोकतंत्र का वर्तमान संदर्भ

आज जब—

सोशल मीडिया राजनीति का केंद्र बन चुका है

बयानबाजी चर्चा से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानी जा रही है

सत्रों की उत्पादकता लगातार कम हो रही है

विधेयक शोरगुल के बीच पास किए जा रहे हैं

तब इस प्रकार का पत्र एक चेतावनी है कि—

“लोकतंत्र केवल चुनाव से नहीं चलता—सदन की मर्यादा से चलता है।”


सदन में शालीनता : एक आवश्यक सुधार

एडवोकेट किशन लाल पाराशर के अनुसार—
सदन का पहला सत्र इस बात के लिए समर्पित होना चाहिए कि—

सभी सदस्य शालीनता की शपथ लें

विषय आधारित चर्चा को अनिवार्य किया जाए

सदन की अवमानना पर सख्त दंड हो

अनुशासनहीनता पर दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान हो

वे चाहते हैं कि—

“सदन में विद्वता, गंभीरता और राष्ट्र निर्माण की भावना हो।”


लोकतंत्र सेनानी का अनुभव और दृष्टि

किशन लाल पाराशर लोकतंत्र सेनानी रहे हैं।
इसलिए उनके शब्द केवल आलोचना नहीं—
बल्कि अनुभव, संघर्ष और इतिहास की गवाही हैं।

आपातकाल के समय जो लोग लोकतंत्र के लिए संघर्षरत रहे—
वे जानते हैं कि—

सदन की भूमिका क्या है

भाषण का महत्व क्या है

व्यवस्था का सम्मान क्यों जरूरी है

उनका पत्र नए और युवा सांसदों के लिए “लोकतांत्रिक आचार संहिता” का एक मार्गदर्शन है।


विश्लेषण

किशन लाल पाराशर का पत्र भारतीय लोकतंत्र के उन मूलभूत प्रश्नों को उठाता है जिन्हें अक्सर दैनिक राजनीति के शोर में भुला दिया जाता है।

उनका संदेश स्पष्ट है—

**“संसद वह स्थान है जहाँ राष्ट्र की दिशा तय होती है;

इसलिए जनप्रतिनिधियों को शालीनता, विद्वता और जिम्मेदारी दिखानी चाहिए।”**

“बहस मुद्दों पर हो—न कि मतभेदों पर।”

“जनता ने प्रतिनिधियों को समस्याएँ हल करने के लिए भेजा है, न कि समस्या बढ़ाने के लिए।”

“राष्ट्र निर्माण में जनप्रतिनिधि की भूमिका सर्वोपरि है।”


कानूनी डिस्क्लेमर (Legal Disclaimer)

इस लेख में व्यक्त विचार एडवोकेट किशन लाल पाराशर द्वारा लिखित मूल पत्र पर आधारित हैं।
लेख में उद्धृत भाव, टिप्पणियाँ और विश्लेषण उनके पत्र, सार्वजनिक संवाद, और लोकतांत्रिक संदर्भ की व्याख्या हैं।
यह लेख पत्रकारिता के सिद्धांतों—
✔ तथ्य,
✔ संदर्भ,
✔ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,
✔ और जनहित

के तहत प्रकाशित किया गया है।
इस सामग्री का उद्देश्य किसी व्यक्ति, संस्था, राजनीतिक दल या संवैधानिक पद की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाना नहीं है।
सभी उल्लेख लोकतांत्रिक विमर्श के दायरे में हैं और पूर्णतः सूचनात्मक/संपादकीय स्वरूप में लिखे गए हैं।


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