छठ महापर्व: लोक आस्था, सूर्योपासना और आत्मशुद्धि का महोत्सव


🌅 छठ महापर्व: लोक आस्था, सूर्योपासना और आत्मशुद्धि का महोत्सव

लेखक: मौहम्मद इल्यास “दनकौरी”


प्रस्तावना — लोक आस्था का सूर्योत्सव

नहाए-खाए से शुरू होकर उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने तक की चार दिनी तपस्या, अनुशासन और भक्ति का यह अनोखा पर्व — छठ महापर्व — 28 अक्टूबर 2025 को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पित करने के साथ संपन्न हुआ।
पूर्वांचल, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और प्रवासी भारतीयों के बीच यह पर्व न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक एकता और पर्यावरणीय चेतना के प्रतीक के रूप में भी मनाया जाता है।

छठ व्रत को लोक आस्था का सबसे पवित्र पर्व कहा गया है, क्योंकि इसमें न तो भव्य मंदिरों की आवश्यकता होती है, न किसी पुरोहित की। केवल शुद्ध मन, निर्मल आचरण और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ही इस पर्व का मूल तत्व है।
यह पर्व सूर्य देवता और छठी मइया के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है, जो जीवनदायिनी ऊर्जा, प्रकाश और स्वास्थ्य का आधार हैं।


इतिहास और उत्पत्ति — वेदों से लोक तक

छठ पर्व की जड़ें भारत की प्राचीन सभ्यता में गहराई तक फैली हुई हैं। ऋग्वेद में सूर्योपासना के अनेक मंत्र मिलते हैं, जिनमें सूर्य को जीवन, स्वास्थ्य और ज्ञान का स्रोत बताया गया है।
वैदिक परंपरा में “सूर्य नमस्कार” और “अर्घ्यदान” जैसी क्रियाएँ युगों से चली आ रही हैं।

लोकमान्यता के अनुसार, राजा प्रियव्रत की पत्नी मालिनी ने जब पुत्र प्राप्ति के लिए यह व्रत किया, तब सूर्य की कृपा से उन्हें संतान की प्राप्ति हुई। महाभारत में भी उल्लेख मिलता है कि कर्ण, जो सूर्यपुत्र कहलाए, प्रतिदिन जल में खड़े होकर सूर्य की उपासना करते थे।
इसी प्रकार द्रौपदी ने भी अपने संकट के समय सूर्योपासना कर अपने परिवार को पुनः स्थापित किया था।

धीरे-धीरे यह पर्व लोक जीवन में रच-बस गया और “छठी मइया” के रूप में सूर्य की ऊर्जा का मातृरूप पूजित हुआ — एक ऐसा रूप जिसमें भक्ति और मातृत्व का सम्मिलन है।


छठ पर्व की क्रमवार यात्रा

1. नहाए-खाए — शुद्धता का प्रारंभ

पहला दिन ‘नहाए-खाए’ कहलाता है। इस दिन व्रती स्नान कर शुद्ध भोजन बनाते हैं — सामान्यतः कद्दू-भात, चने की दाल और अरवा चावल। यह भोजन केवल मिट्टी के चूल्हे पर, गंगाजल से शुद्ध कर, एकांत में ग्रहण किया जाता है।
यह आत्मशुद्धि की पहली सीढ़ी है — जहाँ शरीर और मन दोनों को पवित्र बनाया जाता है।

2. खरना (लोहंडा) — संयम और तप का आरंभ

दूसरे दिन खरना मनाया जाता है। व्रती पूरे दिन निराहार और निर्जल रहते हैं। शाम को सूर्यास्त के बाद वे गन्ने के रस, गुड़ और चावल से बने खीर-रोटी का प्रसाद ग्रहण करते हैं।
इस प्रसाद को परिवार और आस-पड़ोस के लोगों में बाँटा जाता है — जो समाज में एकता और सद्भाव का प्रतीक है।

3. संध्या अर्घ्य — अस्ताचलगामी सूर्य की आराधना

तीसरे दिन व्रती घाटों पर पहुँचते हैं। महिलाएँ साड़ी के पल्लू से दीप ढँककर जल में उतरती हैं और डूबते सूर्य को अर्घ्य देती हैं।
अस्ताचलगामी सूर्य की पूजा इस बात का प्रतीक है कि जीवन के अंत में भी आभार, विनम्रता और संतुलन का भाव बना रहे।
घाटों पर गूंजते गीत, “कांचा ही बांस के बहंगिया…” जैसे लोकगीत, मिट्टी के दीयों की श्रृंखला, गन्ने के मंडप और केले के पेड़ — सब मिलकर लोकसंस्कृति का जीवंत दृश्य रचते हैं।

4. उषा अर्घ्य — नवजीवन की प्रतीक सुबह

चौथे दिन प्रातःकाल उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती जल में खड़े होकर सूर्य की प्रथम किरणों का स्वागत करते हैं।
यह क्षण जीवन के पुनर्जन्म, प्रकाश और आशा का प्रतीक है।
अर्घ्य के बाद व्रती प्रसाद ग्रहण कर व्रत का पारण करते हैं — जिसे “पारण” कहा जाता है।


लोकगीत और सामुदायिक चेतना

छठ के गीतों में माँ और पुत्र, सूर्य और धरती, जल और जीवन — सबका मेल होता है।
लोकगायिकाएँ गाती हैं —

“केतना दिनन के बाद उगS हे भानु देव…”
इन गीतों में एक ओर भक्ति का रस है, तो दूसरी ओर ग्रामीण समाज की जीवंत संवेदना।

छठ के अवसर पर जाति, धर्म, भाषा की दीवारें गिर जाती हैं। गाँव से लेकर महानगरों तक लोग मिलकर घाटों की सफाई करते हैं, बाँस के डाले बनाते हैं और व्रतियों की सहायता करते हैं।
यह पर्व सामूहिकता और सामाजिक सौहार्द का जीवंत उदाहरण है।


पर्यावरण और विज्ञान का संगम

छठ पर्व भारतीय संस्कृति में सतत विकास (Sustainability) का सबसे सुंदर उदाहरण है।
सभी अनुष्ठानों में प्रकृति के तत्वों का प्रयोग होता है — मिट्टी के दीये, बाँस की टोकरी, मौसमी फल, गन्ना, केले के पत्ते और शुद्ध जल।
इससे पर्यावरण को कोई हानि नहीं होती।
वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य के प्रति आभार, विटामिन D और जीवन ऊर्जा का स्रोत मानना — यह पर्व विज्ञान और श्रद्धा का संगम है।


महिलाएँ: शक्ति और श्रद्धा की प्रतीक

छठ पर्व में नारी की भूमिका केंद्र में है।
वह व्रती के रूप में न केवल अपने परिवार की समृद्धि के लिए व्रत रखती है, बल्कि समाज में संयम, सेवा और त्याग की मिसाल पेश करती है।
चार दिन का यह व्रत कठिन तपस्या जैसा है — न भोजन, न जल, न नींद — केवल श्रद्धा और संकल्प।
आज पुरुष और युवा वर्ग भी इसमें भाग लेने लगे हैं, जिससे यह पर्व लैंगिक समानता और सहयोग का प्रतीक बनता जा रहा है।


प्रवासी भारतीयों में छठ

आज छठ केवल बिहार या पूर्वांचल तक सीमित नहीं।
दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चंडीगढ़, सूरत से लेकर दुबई, मॉरीशस, अमेरिका, कनाडा और लंदन तक प्रवासी भारतीय इसे समान उत्साह से मनाते हैं।
विदेशी झीलों के किनारे मिट्टी के दीये और भोजपुरी गीतों की गूँज यह दर्शाती है कि परंपराएँ सीमाओं से परे हैं।
छठ आज भारतीय पहचान का वैश्विक प्रतीक बन चुका है।


प्रशासनिक और सामाजिक प्रबंधन

हर वर्ष प्रशासन और स्थानीय निकाय छठ घाटों की सफाई, रोशनी और सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था करते हैं।
नगर निकाय, पुलिस, एनजीओ और स्वयंसेवी संस्थाएँ मिलकर इसे जन-भागीदारी का त्योहार बना देती हैं।
यह पर्व “क्लीन रिवर, ग्रीन फेस्टिवल” की मिसाल प्रस्तुत करता है।


आधुनिकता और आध्यात्मिकता का संगम

डिजिटल युग में श्रद्धा का स्वरूप भी बदला है — लोग सोशल मीडिया पर छठ गीत साझा करते हैं, लाइव प्रसारण देखते हैं, और दूरस्थ रिश्तेदारों को ऑनलाइन प्रसाद भेजते हैं।
फिर भी, पर्व का मूल स्वरूप — संयम, सेवा और श्रद्धा — आज भी अपरिवर्तित है।
यह परंपरा तकनीक से जुड़कर भी अपनी आत्मा नहीं खोती।


आध्यात्मिक दृष्टि — सूर्योपासना का गूढ़ अर्थ

आध्यात्मिक रूप से सूर्य “आत्मा” का प्रतीक है — प्रकाश, चेतना और जीवन का स्रोत।
छठ में जब व्रती जल में खड़े होकर सूर्य को नमन करते हैं, तो यह केवल देवता की पूजा नहीं बल्कि अपने भीतर की ऊर्जा, शुद्धता और आत्मज्ञान का आह्वान होता है।
यह ध्यान, मौन और संयम की साधना है — “बाहरी सूर्य” के साथ “अंतःसूर्य” को जाग्रत करने की साधना।


निष्कर्ष — आस्था, अनुशासन और सामंजस्य का पर्व

छठ महापर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, यह जीवन दर्शन है।
यह बताता है कि मनुष्य जब प्रकृति के साथ संतुलन में जीता है, तभी सच्चा सुख प्राप्त होता है।
सूर्य, जल, पृथ्वी, वायु — इन सबके प्रति कृतज्ञता का भाव ही भारतीय संस्कृति का सार है।
छठ हमें सिखाता है कि भक्ति में भव्यता नहीं, सादगी में शक्ति है।


🕊️ कानूनी अस्वीकरण (Legal Disclaimer)

यह लेख केवल सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और लोक-आस्था संबंधी जानकारी प्रदान करने के उद्देश्य से लिखा गया है।
इसमें उल्लिखित धार्मिक मान्यताएँ और परंपराएँ विभिन्न समुदायों की आस्थाओं पर आधारित हैं।
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यह लेख केवल सूचनात्मक और सांस्कृतिक उद्देश्य से तैयार किया गया है।
किसी भी प्रकार के धार्मिक विवाद, असहमति या सामाजिक मतभेद के लिए लेखक या प्रकाशक उत्तरदायी नहीं होंगे।
सभी जानकारी लोक परंपराओं, ऐतिहासिक अभिलेखों और सामान्य सांस्कृतिक स्रोतों पर आधारित है।


✍️ लेखक परिचय

मौहम्मद इल्यास “दनकौरी”
लोक-संस्कृति, परंपरा और समाज विषयों पर सक्रिय स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक।
ग्रामीण भारत की जीवनशैली और लोकआस्था से जुड़े विषयों पर उनकी लेखनी संवेदनशील और संतुलित दृष्टिकोण के लिए जानी जाती है।

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