
भाटी गोत्र का वैभवशाली इतिहास: जैसलमेर से कासमगढ़ (कासना) तक की विरासत
— चैनपाल प्रधान, पूर्व जिला अध्यक्ष, हिंदू युवा वाहिनी, गौतमबुद्धनगर
भाटी गोत्र की ऐतिहासिक यात्रा भारतीय उपमहाद्वीप के वीरगाथाओं और सामरिक परंपराओं का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। 12वीं शताब्दी में जैसलमेर के प्रतिष्ठित भाटी सरदार राजा राव कौशल न केवल एक शक्तिशाली शासक थे, बल्कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान के विश्वस्त सेनापति भी रहे।
युद्ध और शासन विस्तार की रणनीति के अंतर्गत राव कौशल के दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्र कासमगढ़ (वर्तमान कासना) पहुँचे, जहाँ उन्होंने स्थायी निवास स्थापित किया। यही स्थान बाद में नौलखा बाग और रानी सती निहालदे के पावन स्मृति स्थल के रूप में प्रसिद्ध हुआ। कासना क्षेत्र के चारों ओर पहले से ही गुर्जर भाटी समुदाय की घनी बसावट थी, जिसके चलते यह भूभाग ऐतिहासिक ग्रंथों में भटनेर के नाम से जाना गया।
राजा राव कौशल की दो पत्नियाँ थीं, जिनमें से एक गुजरी समुदाय से थीं, जिनका संबंध रीलखा गांव, दनकौर की कसाना गोत्र से था। इनसे उत्पन्न वंशज गुर्जर भाटी कहलाए। दूसरी पत्नी राजपूत कुल से थीं, जिनकी संतानों से राजपूत भाटियों की कई शाखाएँ – जैसे रावल, घोड़ी, बछेड़ा, रबूपुरा, फलेदा आदि – निकलीं।
इतिहासकारों के अनुसार मुगल काल, विशेष रूप से औरंगजेब के शासन के दौरान, भाटियों के कुछ वंशजों ने इस्लाम स्वीकार किया। इन वंशों ने तिल दौला, मंडपा जैसे अनेक गांवों की स्थापना की। इस प्रकार भाटी वंश की उपस्थिति केवल राजनैतिक या सामरिक नहीं रही, बल्कि धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी इसकी छाप गहराई से अंकित हुई।
भाटी गोत्र की यह बहुपरतीय विरासत आज भी गौतम बुद्ध नगर की सांस्कृतिक चेतना में जीवंत है। यह न केवल एक वंश या जातीय पहचान है, बल्कि संघर्ष, साहस, समर्पण और सामाजिक समरसता का प्रतीक भी है।

चैनपाल प्रधान, पूर्व जिला अध्यक्ष, हिंदू युवा वाहिनी, गौतमबुद्धनगर
यह इतिहास हमें हमारी जड़ों की स्मृति कराता है और यह भी सिखाता है कि क्षेत्रीय पहचान से आगे बढ़कर संस्कृति और सह-अस्तित्व की भावना ही हमें संपूर्ण बनाती है।