रागिनी की विरासत को संजोती शिष्य परंपरा: कोशिंदर खदाना और रिशिपाल खदाना की प्रेरणा

 

मौहम्मद इल्यास- “दनकौरी” / सूरजपुर

बाराही मेला सूरजपुर 2025 की सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में हरियाणवी रागिनी की गूंज सुनाई दी, जिसने श्रोताओं को न केवल मनोरंजन किया बल्कि सांस्कृतिक चेतना से भी जोड़ा। रागिनी की यह विधा जो हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोकसंस्कृति का अभिन्न हिस्सा है, आज भी जीवंत है—उसके पीछे एक समर्पित गुरु-शिष्य परंपरा का योगदान है।

रागिनी सम्राट कोशिंदर खदाना और उनके सुपुत्र रिशिपाल खदाना न केवल मंचों के सुप्रसिद्ध नाम रहे हैं, बल्कि उन्होंने इस विधा को नई पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए प्रशिक्षण और प्रेरणा का कार्य भी किया है।
इन महान कलाकारों की शिष्य मंडलियों ने बाराही मेले जैसे आयोजनों को अवसर बनाकर इस लोक विधा को जीवित रखा है।

इस वर्ष प्रस्तुतियाँ देने वाले कलाकार जैसे रविंद्र खालौर, प्रीति कश्यप, सुनील चौहान, नीतू भाटी, आदि स्वयं को खदाना परंपरा का शिष्य मानते हैं। इन कलाकारों ने श्रवण कुमार, वीर हकीकत राय, कृष्ण-सुदामा जैसे प्रसंगों को जिस शास्त्रीयता और भावनात्मक गहराई से प्रस्तुत किया, वह इसी गहन गुरु-शिष्य परंपरा का परिणाम है।

रागिनी एक विधा भर नहीं, बल्कि सामाजिक शिक्षाओं, नैतिक मूल्यों, वीर रस और भक्ति भाव की जीवंत अभिव्यक्ति है।
खदाना घराने की रचनाएँ और शिष्य मंडली की प्रस्तुतियाँ समाज को नशामुक्ति, नारी सम्मान, राष्ट्रप्रेम और भाईचारे का संदेश भी देती हैं।

रिशिपाल खदाना ने अपने साक्षात्कारों में बार-बार कहा है कि
“रागिनी को स्टेज तक सीमित मत करो, इसे गांवों के चौपाल तक पहुँचाओ, जहाँ से ये निकली थी।”
इसी दर्शन को आत्मसात कर बाराही मेले जैसे मंचों से युवा कलाकार इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।

आज की रागिनी, कल की धरोहर

बाराही मेले जैसे आयोजन केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संरक्षण की प्रयोगशाला बनते जा रहे हैं। और जब कोशिंदर खदाना और रिशिपाल खदाना जैसे पुरोधाओं की परंपरा से जुड़ी शिष्य मंडली मंच पर उतरती है, तो केवल गीत नहीं गूंजते—बल्कि संस्कार और संस्कृति की गूंज भी सुनाई देती है।

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