–राजेश बैरागी- हालांकि इस कवायद की आवश्यकता नहीं है। उत्तर प्रदेश की बेसिक शिक्षा व्यवस्था का पहले ही भट्टा बैठ चुका है। विभिन्न समाचार-पत्रों में समाचार छपे कि उत्तर प्रदेश सरकार ऐसे 27981 प्राथमिक विद्यालयों को बंद करने जा रही है जिनमें छात्रों की संख्या 50 से भी कम है। इनमें जनपद गौतमबुद्धनगर के भी 152 स्कूल शामिल बताए गए हैं। समाचारों में बताया गया कि ऐसे स्कूलों को बंद कर उनके छात्रों को आसपास के दूसरे सरकारी विद्यालयों में समायोजित किया जाएगा। इन समाचारों पर त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने जहां इसे एक गलत फैसला बताया वहीं दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इसके बहाने भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा कि यदि भाजपा दिल्ली में सत्ता में आई तो वहां भी यह सरकारी स्कूलों का बेड़ा ग़र्क कर देगी। तो क्या केजरीवाल को भाजपा के दिल्ली में सरकार बनाने का भय सता रहा है? यह प्रश्न राजनीतिक है और हम फिलहाल उत्तर प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग ने ‘एक्स’ पर ऐसी किसी प्रक्रिया के गतिमान न होने का दावा करते हुए सभी समाचारों को सिरे से खारिज कर दिया है। परंतु यदि धुआं उठ रहा है तो कहीं न कहीं आग अवश्य लगी है।यह होना ही था।जिस भी व्यवस्था को न चलने देने के लिए सारी कायनात पूरी इच्छाशक्ति से लगी हुई हो,उस व्यवस्था को तो स्वयं रामजी भी नहीं चला सकते हैं। वर्षों से ध्वस्त प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को योजनाबद्ध तरीके से समाप्त करने की साजिशें रंग लाने लगी हैं। शिक्षा मंत्रियों से लेकर विभागीय अधिकारियों और शिक्षकों तक ने मिलकर प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को उधेड़ने का जो ताना-बाना इतने वर्षों में बुना है, उसके परिणाम सामने आने लगे हैं।उत्तर प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा शीघ्र ही कालातीत हो सकता है। शिक्षा का अधिकार, मध्यान्ह भोजन, निशुल्क ड्रेस जूते और पुस्तकें देने के बावजूद प्राइमरी सरकारी स्कूलों को आबाद नहीं किया जा सका है। लिहाजा पचास से कम छात्र संख्या वाले ऐसे विद्यालयों को बंद किया जा सकता है।पहली से पांचवीं तक पांच कक्षाओं वाले इन स्कूलों में गिनती के पांच अध्यापक मिलना संभव नहीं है। अमूमन सभी विद्यालयों में दो ही कमरे हैं। ‘चलो स्कूल’ के नारे की हुंकार सुनकर भी अभिभावक अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजने को तैयार नहीं हैं। दनकौर विकास खंड के गांव हथेवा की जनसंख्या लगभग साढ़े चार हजार है। इनमें से एक तिहाई छात्र हैं। गांव में दो प्राइमरी पाठशाला, एक सरकार द्वारा वित्त पोषित हाईस्कूल और चार निजी स्कूल हैं। निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या एक हजार से अधिक है जबकि दोनों प्राइमरी स्कूलों में मिलाकर भी बच्चों की संख्या पचास तक नहीं पहुंच पा रही है। इन दोनों प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे मुसलमान या दलित हैं। थोड़ा सा दमखम रखने वाले दलित और मुसलमान भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में ही भेजते हैं। शिक्षक राजकुमार शर्मा बताते हैं कि सरकारी स्कूलों के प्रति ऐसा माहौल बना हुआ है कि यहां पढ़ाई नहीं होती है। पिछले वर्षों में बेसिक शिक्षा विभाग ने निजी स्कूलों को दरियादिली से मान्यताएं बांटी हैं। प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा के स्तर से लेकर बाहरी तौर पर दिखाई देने वाला प्रदर्शन अभिभावकों को आकर्षित करता है। सरकारी स्कूलों में स्वयं को साबित करने का कोई आग्रह दिखाई नहीं देता। यदि ऐसा हुआ तो क्या बंद होने वाले सरकारी स्कूलों के बच्चे दूसरे गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ने जा सकेंगे? अनुभवी लोगों का मानना है कि ये सभी पच्चीस पचास बालक प्राथमिक शिक्षा से पूरी तरह वंचित हो सकते हैं या जंगल कीआग की भांति फैल रहे निजी स्कूलों की भेंट चढ़ सकते हैं। अनुमान है कि जनपद गौतमबुद्धनगर में हजारों मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों के अतिरिक्त विभागीय वरदहस्त के चलते पांच सौ से अधिक गैर मान्यता प्राप्त स्कूल भी चल रहे हैं।ये सब सरकारी शिक्षा व्यवस्था के ध्वस्त होने के ही प्रमाण हैं।
लेखक :– राजेश बैरागी एक स्वतंत्र पत्रकार, सामाजिक चिंतक और विचारक हैं।