
संपादकीय
बाढ़ में बहती इंसानियत, चुनाव में खिलती राजनीति
सत्ता हो या विपक्ष—दोनों को जनता की नहीं, सिर्फ बिहार में वोट की फसल की पड़ी है
प्रस्तावना : त्रासदी और तमाशा
देश का उत्तरी और पश्चिमी हिस्सा इस समय बाढ़ की विभीषिका से कराह रहा है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश से लेकर कई अन्य राज्यों तक पानी ही पानी है। खेत जलमग्न हैं, घर बह गए हैं, सड़कें टूटी पड़ी हैं और इंसान छतों पर बैठकर टकटकी लगाए किसी मदद का इंतज़ार कर रहा है। मवेशी भूख से तड़पकर मर रहे हैं और बच्चे दूषित पानी से फैल रही बीमारियों की चपेट में हैं।
लेकिन आश्चर्य देखिए, राजनीति के अखाड़े में इस त्रासदी का कोई नामोनिशान नहीं। नेताओं की जुबान पर न राहत की बात है, न पुनर्वास की। उनकी नज़रें बाढ़ के मैदान पर नहीं, बल्कि बिहार के चुनावी मैदान पर गड़ी हुई हैं। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष—दोनों की संवेदना की नाव सिर्फ वहीं तैर रही है।

बाढ़: एक वार्षिक जलप्रलय
भारत में बाढ़ अब कोई अप्रत्याशित आपदा नहीं रह गई है। यह हर साल आती है, हजारों गाँव डुबो जाती है और लाखों लोगों को बेघर कर देती है। रिपोर्टें कहती हैं कि पिछले दो दशकों में बाढ़ से जितना नुकसान हुआ, उतना शायद किसी युद्ध से भी नहीं हुआ होगा। लेकिन अफ़सोस यह है कि हमारी सरकारें और राजनीतिक दल इसे गंभीर राष्ट्रीय संकट मानने के बजाय मौसमी आफ़त समझकर टाल देते हैं।
बांधों की योजनाएँ फाइलों में दब जाती हैं। नदियों की गाद सफाई कभी होती ही नहीं। जल निकासी की नालियाँ भ्रष्टाचार की दलदल में बंद हो जाती हैं। राहत कोष का पैसा अफसरों और ठेकेदारों की जेब में चला जाता है। और नतीजा? जनता फिर से बाढ़ के पानी में बहती है।
सत्ता पक्ष: भाषणों और हेलिकॉप्टर सर्वे की राजनीति
सत्तापक्ष का रवैया किसी फिल्मी दृश्य से कम नहीं। नेताजी हेलिकॉप्टर से ऊपर-ऊपर उड़ते हैं, कैमरों को पोज़ देते हैं और फिर जनता से कहते हैं—“हम बाढ़ पीड़ितों के साथ हैं।” कभी-कभार रबर की नाव पर बैठकर दो कदम पानी में चल भी लेते हैं, ताकि टीवी चैनलों पर अगले दिन यही हेडलाइन चले: “नेता जी ने खुद बाढ़ पीड़ितों का हाल जाना।”
पर असल मदद कहाँ है?
न राहत शिविरों में पर्याप्त भोजन है, न दवाइयाँ।
न मुआवज़े का पैसा समय पर पहुँचता है, न पुनर्वास की ठोस योजना बनती है।
सत्ता पक्ष के लिए यह बाढ़ भी बस एक इवेंट है—तस्वीरों और भाषणों का। इंसान की जान और खेत की फसल उनके एजेंडे में नहीं, उनकी राजनीति में सिर्फ वोट की फसल है।

विपक्ष: मौन की राजनीति
अक्सर जनता को लगता है कि विपक्ष उनकी आवाज़ बनेगा। लेकिन इस बार विपक्ष का चेहरा भी सत्ता पक्ष जैसा ही है। विपक्ष संसद में इस मुद्दे पर कोहराम मचा सकता था। सड़कों पर उतरकर राहत सामग्री जुटा सकता था। अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकता था।
लेकिन विपक्ष भी चुप है। क्यों?
क्योंकि उनकी सारी ऊर्जा और रणनीति बिहार चुनाव में लगी है।
वे जानते हैं कि बाढ़ पीड़ित जनता को फिलहाल कोई वोट नहीं मिलेगा।
इसलिए उनके लिए प्राथमिकता वही है जहाँ सीटें हैं, न कि जहाँ सीटियाँ बज रही हैं।
विपक्ष की रैलियों में रोजगार, शिक्षा और विकास के बड़े-बड़े वादे गूँजते हैं। लेकिन बाढ़ पीड़ित किसानों और मजदूरों के बारे में एक शब्द नहीं निकलता। यह लोकतंत्र का सबसे कड़वा सच है—जनता की पीड़ा विपक्ष के लिए भी सिर्फ चुनावी स्क्रिप्ट है, जिसे वे बिहार की धरती पर मंचित कर रहे हैं।
वोट की फसल बनाम धान की फसल
बाढ़ ने किसानों की मेहनत चौपट कर दी है। खेतों में लगी धान की बालियाँ, गन्ने की कतारें और सब्ज़ियों की क्यारियाँ सब पानी में समा गईं। पर नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
क्योंकि उनके लिए असली फसल खेतों में नहीं, मतपेटियों में उगती है।
बिहार चुनाव उनकी नज़र में वही खेत है जहाँ वोट की सबसे उपजाऊ मिट्टी है।
वहाँ वे रात-दिन मेहनत कर रहे हैं—रणनीतियाँ बना रहे हैं, गठबंधन कर रहे हैं, जातीय समीकरण साध रहे हैं।
जनता के खेत उजड़े तो उजड़े, लेकिन चुनावी खेत में उनकी फसल लहलहाती रहे, यही उनकी असली चिंता है।

मीडिया और जनता की बेबसी
मीडिया का बड़ा हिस्सा भी इस खेल का हिस्सा बन गया है। राष्ट्रीय चैनलों पर बाढ़ की खबरें कोने में सिमट जाती हैं। सुर्खियों में सिर्फ बिहार की राजनीति है—कौन सा नेता कहाँ सभा कर रहा है, कौन किससे गठबंधन तोड़ रहा है, किसने किस पर क्या बयान दिया।
जनता की बेबसी, बच्चे की भूख, किसान की बरबादी और महिला की चीख अब खबर नहीं, सिर्फ आंकड़ा बनकर रह गई है।
और जनता?
वह हर साल यही सोचती है कि शायद इस बार मदद मिलेगी। लेकिन लोकतंत्र में उसका दर्द हमेशा चुनाव के मौसम तक स्थगित रहता है।
सत्ता और विपक्ष का साझा अपराध
इस पूरे परिदृश्य को देखें तो साफ समझ आता है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों बराबर के गुनहगार हैं।
एक तरफ सत्ता पक्ष बाढ़ को फोटो-ऑप और बयानबाज़ी का मौका मान रहा है,
तो दूसरी तरफ विपक्ष इसे अनदेखा कर वोट की बिसात बिछाने में व्यस्त है।
यह जनता के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात है। क्योंकि लोकतंत्र का मतलब था जनता की आवाज़, लेकिन यहाँ लोकतंत्र का मतलब बन गया है जनता के वोट।

बाढ़ और राजनीति का चिरस्थायी गठबंधन
हर साल बाढ़ आती है और हर साल राजनीति खिलती है।
नदियाँ उफनती हैं, गाँव डूबते हैं, इंसान मरते हैं।
लेकिन सत्ता और विपक्ष की राजनीति पर कोई असर नहीं होता।
बाढ़ का पानी उतर जाएगा,
पर नेताओं के दिलों में फैला संवेदना का सूखा कभी नहीं सूखेगा।
जनता अपनी छतों पर बैठकर ‘राहत’ का इंतजार करेगी,
और नेता मंचों पर बैठकर ‘वाहवाही’ का आनंद लेंगे।
सच तो यह है कि हमारे लोकतंत्र में इंसानियत अब बहती है और राजनीति खिलखिलाती है।
जनता पानी में डूबती रहेगी और नेता वोट की नाव पर सवार होकर बिहार की ओर तैरते रहेंगे।
यही इस देश का सबसे बड़ा जल-प्रलय है।
✍️
मौहम्मद इल्यास – “दनकौरी”
संपादक